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नवम अध्याय
उपसंहार कालिदासोत्तर संस्कृत कवियों में चमत्कार - प्रदर्शन की प्रवृत्ति प्रायः देखी जाती है। इस तथ्य की जानकारी संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुशीलन से होती है। आचार्य क्षेमेन्द्र के कविकण्ठाभरण ग्रन्थ की विशेष रुप से प्रसिद्धि है। इसमें क्षेमेन्द्र ने दस प्रकार के चमत्कार का निरुपण किया है।
दशविधश्चमत्कारः, अविचारितरमणीयः, विचार्यमाणरमणीयः, समस्तसूक्तव्यापी, सूक्तैकदेशदृश्यः, शब्दगतः, अर्थगतः, शब्दार्थगतः, अलंकारगतः, रसगतः, प्रख्यातवृत्तगश्च।
इन सभी चमत्कारों के अनेकानेक उदाहरण जयोदय महाकाव्य में मिलते हैं। जयोदय महाकाव्य के प्रणेता वाणी भूषण पं. भूरामल जी बीसवीं शताब्दी के एक प्रतिभा सम्पन्न जैन महाकवि थे। भूरामलजी ज्ञान के अगाध सागर थे। वे धर्म, दर्शन, व्याकरण और न्याय के वेत्त एवं सदाचार की साकार प्रतिमा थे। निष्परिग्रहिता, निर्ममत्व, निरभिमानिता उनके भूषण थे। कवित्व उनका स्वाभाविक गुण था।
संस्कृत जैन महाकाव्यों की विशाल परम्परा आठवीं शती से वर्तमान शती पर्यन्त कुल एक हजार दो सो वर्षों की है। इसमें 18 वीं शताब्दी एवं 19 वीं शताब्दी शऊन्य काल के रूप में परिगणित है। इस शताब्दी में रचित जयोदय महाकाव्य आचार्य ज्ञानसागर जी की वाणी के चमत्कार के रुप में प्रस्फुटित कृति है। साहित्य साधना के उतकट प्रयत्न जिनवाणी के प्रति अनन्य भक्ति का साक्षात् मूर्तिमान स्वरुप है। काव्य के प्राण प्रमुख श्रृंगार, वीर एवं शान्तरस का जो मधुरिम परिपाक इसमें प्रकट हुआ है वह अद्वितीय है। इतिहास पुराण सम्मत व्यापक एवं गम्भीर कथानक युक्त तथा 28 सर्गो में निबद्ध यह महाकाव्य कवि की अनल्पकल्पना की प्रसवित्री नव नवोन्मेशालिनी प्रतिभा का अभिव्यजंक है। इसमें इतिहास विश्रुत महापुरुष जयकुमार एवं पतिव्रता नारी सुलोचना की पौराणिक कथा सुगुम्पित है। जयकुमार व सुलोचना के माध्यम से मानव चरित तथा मानव आदर्श को इस महाकाव्य में दर्शाया गया है। उनकी इस काव्य रचना में महाकाव्य के लिए अपेक्षित समस्त तत्व विद्यमान है। यह उनके अगाध पाण्डित्य और अपूर्व वाग्वैदग्ध्य का अप्रतिम निदर्शन है। आचार्य ज्ञान सागरजी ने जिस भाषा लालित्य और काव्य कौशल