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________________ तज्जन्मोत्थिमित्थमुन्मदसुखं लब्ध्वा यथापाकलि पश्चात्सम्प्रति जम्पती अदमतामेवं हृदा चारूणा । प चाक्षाणि निर्जानि निर्मदतया तद्वृत्तमत्युत्तर्म मडक्षूदगीतमिहोपवीतपदकैरित्युत्तृणाडकं मम । इस प्रकार भाग्योदय के अनुसार सांसारिक उत्तम सुख प्राप्त कर जिस दम्पत्ति ने सरल हृदय से अपनी पांचों इन्द्रियों का दमन किया था, उस दम्पत्ति जयकुमार और सुलोचना का यह उत्तम चरित मैंने यहाँ मद रहित हो संस्कारित पदों से शीघ्र ही प्रकट किया है । मेरा यह काव्य उतृणाङक - निर्दोष रहे, यह भावना है। यं पूर्वजमहं वन्दे स वृषोत्तमपादपः । एतदीयोपयोगायेयं सम्पल्लवता मम ॥ मैं जिसके पूर्व में ज है, ऐसे य अर्थात् जयकुमार को नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे धर्म के उत्तम वृक्ष थे । इन्हीं के उपयोग के लिये अर्थात् इन्हीं का चरित्र वर्णन करने के लिए मेरा यह समीचीन पदों का प्रयोग है, अथवा मैं उन पूर्ववर्ती गुरुवर्ग को प्रणाम करता हूँ, जो धर्म सम्बन्धी उत्तम आचरण का पालन करता था । मेरी यह शब्द रुप सम्पत्ति इन्हीं के उपयोग के लिये हैं । जयकुमार की कथा इतिहास प्रसिद्ध है । इसलिये कवि भूरामल जी ने अपने काव्य को इस यशस्वी व्यक्तित्व से मण्डित किया है। इसलिए जयोदय महाकाव्य में चमत्कार आ गया है । 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 28/70 277 2 वही, 28/71
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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