SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है - समुन्नामातिलघु प्रभोः पुरो द्वयं मिलित्व शययोश्च साम्प्रतम्। शिरः स्वयं भक्तितुलाधिरोपितं गुरूत्वतश्चावननाम भूपतेः॥ राजा जयकुमार व सुलोचना पर्वतों की यात्रा पर जाते हैं। वहाँ केलाश पर्वत पर जाते हुए रास्ते में जिन मन्दिरों को देखते हैं, वहाँ जाकर वे जिनेन्द्रदेव को प्रणाम करते हैं। इस समय भक्ति की तराजू पर चढ़े हुए राजा जयकुमार के दोनों हाथ परस्पर मिल कर प्रभु के आगे शीघ्र ही ऊपर उठ गये, परन्तु भक्ति रुप तराजू पर चढ़ा हुआ राजा का शिर गुरुता-महत्ता के कारण स्वयं नीचे की और झुक गया। तात्पर्य यह है कि राजा ने हाथ जोड़कर तथा शिर झुकाकर प्रभु को नमस्कार किया। इससे जयकुमार की जिनेन्द्रदेव के प्रति भक्ति भावना दृष्टिगोचर होती एक ललित उदाहरण देखिए - य उपश्रुति निर्वृतिश्रिया कृतसंकेत इवाथ भूर्धियाम्। विजनंहि जनेकनायकः सहसेवाभिललाष चायकः।। जब कांचना नामक देवी जयकुमार के सामने हाव भाव प्रकट करके संभोग की याचना करती है तो इस घटना से जयकुमार के हृदय मे वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। जो विचार शक्तियों के स्थान थे, जनसमूह के अद्वितीय नायक थे तथा चन्द्रमा के समान शुभ भाग्य को धारण करने वाले थे। ऐसे जयकुमार ने अकस्मात् ही निर्जन वन में जाने की अभिलाषा की। इससे ऐसा प्रतीत होता था मानों मुक्तिरुपी लक्ष्मी ने कान के पास आकर मिलने का संकेत ही कर दिया हो। यहाँ प्रख्यात पुरुष जयकुमार के चरित्र से कथाशं में चमत्कार है। संसारसागरसुतीरवदादिवीर -- श्रीपादपादपपदं समवाप धीरः। तत्राऽऽनमस्तु झरदुत्तरलाक्षिमत्तवा न्मुक्ताफलानि ललतिानि समाप सत्वात्। 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 23/66 2. वही, 25/86 3. वही, 26/69
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy