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एक अन्य उदाहरण देखिए -
सदनुमानिते तरलितो हिते परिषदास्पदे भरतमाददे। यदिव खञ्जनः परमरञ्जनमथ नभस्तले शशिनमुज्जवले॥ अनुसमग्रहीत्तमपि किन्नहिं स च तमोऽभिमित् स्वमृदुरश्मिभिः।
कौमुदस्थितिं वर्द्धयन्निति सम्बभावतीद्धा परिस्थितिः॥
जयकुमार स्वयंबर के पश्चात् अयोध्या प्रयाण करते हैं। सर्वप्रथम वे भरत चक्रवर्ती से काशी में अपने व अर्ककीर्ति के साथ हुए युद्ध के लिए क्षमा याचना के लिए उनकी सभा में जाते है।
जिस प्रकार स्वकीय हित में उत्सुक चकोर सदनुमानित नक्षत्रों से सुशोभित उज्जवल आकाश तल में परमालादकारी चन्द्रमा को प्रेम भरी दृष्टि से देखता है और अपनी कोमल किरणों से अन्धकार को नष्ट करता तथा कुमुद समूह की विकास रुप स्थिति को वृद्धिगत करता हुआ चन्द्रमा उस चकोर को अनुगृहीत करता है, अपनी निर्मल चांदनी से प्रसन्न करता है और उस समय की वह स्थिति अत्यन्त सुशोभित होती है। उसी प्रकार आत्म हित में उत्कण्ठित जयकुमार ने भी सदनुमानित-सभ्य जनों से परिपूर्ण एवं पवित्र सभा स्थान में अतिशय आनन्दकारी भरत महाराज को प्रेम भरी दृष्टि से देखता है। मन्द मुस्कान तथा मधुर भाषण आदि के द्वारा अर्ककीर्ति के पराजय से कहीं महाराज भरत कुपित तो नहीं है, इस प्रकार संशय रुपी तिमिर को नष्ट करने वाले एवं कौमुदः स्थिति पृथ्वी पर प्रसन्नता की स्थिति को बढाते हुए भरत महाराज ने क्या जयकुमार को अनुगृहीत नहीं किया था ?. अवश्य किया था। इस प्रकार जयकुमार व भरत के मिलने की यह परिस्थिति अत्यन्त सुशोभित हो रही थी।
इससे हमें जयकुमार का भरत के प्रति आदर भाव दृष्टिगोचर होता है। इससे कथावस्तु में चमत्कार उत्पन्न होता है। प्रख्यातवृत्त की एक और बानगी दृष्टव्य है -
तत्र स प्रभविधेनुगत्वतः स्नेहमाप वृषवत्सलत्वतः।
शस्यतोयजनसश्रयत्वतस्तुल्यतामनुभवन् महत्वतः। राजा जयकुमार अयोध्या में भरत से मिलने के पश्चात् हस्तिनापुर प्रयाण करते हैं। वहाँ कवि ने हस्तिनापुर व जयकुमार उन दोनों की तुलना की है। इससे जयकुमार के चरित्र से कथावस्तु में चमत्कृति के दर्शन होते हैं। 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध 20/8-9: 2. वही, 2 1/44
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