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________________ यदाशुगस्थानमितः स धीरः प्राणप्रणेता जयदेववीरः। अरातिवर्गस्तृणतां बभार तदाऽथ काष्ठाधिगतप्रकारः।। जब प्रजा के प्राणों की रक्षा करने वाले धीर वीर जयकुमार ने धनुष उठाया तब नाना दिशाओं से आये शत्रुवर्ग ने तृणता स्वीकार की। जयकुमार के सामने शत्रु टिक नहीं सके जैसे हवा से तृण उड़ जाता है। वैसे ही वे तितर - बितर हो गये। यहाँ प्रख्यात पुरुष जो जयकुमार है उसके चरित्र वर आधृत कथांश में चमत्कार है। एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है - आसीरिकलासौ बलिसप्रयोगेऽपि स्फीतिमाप्तो ग्रहणानुयोगे। जयश्रियो देवतया प्रणीतहेतिप्रसङगगोऽथ जयस्य हीतः।। जयकुमार के वीरतापूर्ण महनीय कार्यों के वर्णन से प्रख्यात वृत्तगत चमत्कार उत्पन्न होता है। जब जयकुमार व अर्ककीर्ति के बीच युद्ध हो रहा था, तो अर्धचन्द्र नामक बाण जयकुमार को विजय श्री दिलाने में कारण बना। यह बाण देवताओं द्वारा प्रद्धत्त और बलियों के संप्रयोग से स्फूर्तिशाली हो गया था। अतः जयकुमार को विजय प्राप्त कराने में समर्थ था जैसे कि प्रणीताग्नि में बलि डालने पर वह और बढ़ती है तथा पाणिग्रहण कराने में समर्थ भी होती है उसी प्रकार इस अर्धचन्द्र बाण से जयकुमार का साथ दिया। जगतीजयवान् भुजोरसी समवर्षतसुयशः सुतेजसी। सितशोणमीत्विषां भिषात्स्वविभूषां ग्रजुषां प्रभोर्विशाम्।। जयकुमार के शौर्यादि का पराक्रम सारे संसार में व्याप्त था। जिससे जयकुमार के चरित्र से कथानक में चमत्कार के दर्शन होते हैं। जगत् पति जयकुमार की भुजाओं ने सारे संसार पर विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिए मानो अपने आभूषणों के अग्रभाग में विद्यमान, श्वेत और लाल मणियों की प्रभा के व्याज से सुयश और प्रताप की वर्षा कर रही थी। प्रख्यात वृत्त की एक और बानगी द्रष्टव्य है - 1. जयोदयमहाकाव्य, पूवार्ध, 8/47 2. वही, 8/79 3. वही, 10/46
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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