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. हस्तिनापुर के अधिपति राजा जयकुमार के रुपवान् व विद्वता का गुणगान करते हुए कवि कह रहा है कि -
___ उस राजा के कंठ ने तो शंख की शोभा हरण कर ली और उसका उधर प्रशंसनीय दांतों वाला था। उसके कान अच्छी तरह सुनने वाले थे। इस तरह वह राजा जयकुमार अपने प्रत्येक अंगों से सुन्दर होते हुए वृद्धि से संयुक्त था। कारण उसका कंठ शंख का गुण मूर्खता को नष्ट करने वाला था, उसका अधर ब्राह्मणों की अर्थात् पण्डितों की संगति में रहने से श्रेष्ठ था और उसके कान तो स्वयं ही सवर्ण वर्ण श्रवणशील अर्थात् विद्वान थे।
एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है -
प्रातरादिपदपद्मयोर्गतः श्रीप्रजाकृतिनिरीक्षणे न्वतः। नवक्तमात्मवनिताक्षणे रतः सर्वदेव सुखिनां स सम्मतः॥
महाराज जयकुमार प्रात:काल तो आदिजिनेश्वर ऋषभदेव के चरणों की सेवा पूजा में लगा रहा था। उसके बाद दिन में चारों वर्गों की प्रजा के कार्यों का निरीक्षण किया करता था। रात्रि में अपनी स्त्रियों के साथ विलासादि उत्सव में निमग्न रहता था। इस प्रकार वह सर्वदा सुखी जनों में श्रेष्ठ माना जाता था।
इससे जयकुमार की भगवान् के प्रति आस्था, प्रजा के प्रति कर्तव्य पालन, व सासांरिक सुखों में रूचि से उसका चरित्र उत्कृष्टता की श्रेणी में आता है। मंजुल निदर्शन वक्ष्यमाण पंक्तियों में -
राजत्तवविशदस्य या स्वतः क्षीरनीरसुविवेचनावतः। साथ मानसमय स्म रक्षति संस्तवं सुखगताय पक्षतिः।।
जिस प्रकार सुखगतायपक्षतिः यानी सुन्दर खगता प्राप्ति के साधन पंख का मूल राजहंस की मानसरोवर की घनिष्ठता की रक्षा किया करता है, उन्हीं पंखमूलों के बदौलत गगन में उड़कर वह मानसविहार की अपनी प्रसिद्धि बनाये रखता है। वैसे ही जयकुमार की सुखागताय पक्षतिः अर्थात् सुख से जीवन-निर्वाह के लिए संघटित शासन-परिषद उसके सम्मानपूर्ण परिचय की रक्षा करती थी, वह सम्मान दृष्टि से ही परिचित हुआ करता था। जैसे राजहंस स्वभावतः दूध का दूध और पानी का पानी कर देता था वैसे ही यह राजा भी 1. जयोदयमहाकाव्य, पूवार्ध, 3/3 2. वही, 3/7