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सर्व-साधारण के समक्ष दृश्यमान रवि (सूर्य) का रुप धारण कर रहा है।
जयकुमार का जो तेज बचा उससे सूर्य का निर्माण हुआ । जयकुमार की चारित्रिक विशेषताओं से ही जयोदय महाकाव्य की कथा में चमत्कृति के दर्शन होते हैं ।
प्रख्यातवृत्तगत चमत्कार इस श्लोक में भी अवलोकनीय है यस्य प्रसिद्धं करणानुयोगं समेत्य तद्दिव्यगुणप्रयोगम् । बभूव तावन्नवतानुयोगचतुष्टये हे सुग्दृढोपयोग ॥
उन दिव्य गुणों के धारक महाराज जयकुमार के कर्तव्य का संसर्ग पाकर प्रथमानुयोगादि चार अनुयोगों में नवीनता प्राप्त हो गयी है । उस राजा जयकुमार की पांचों इन्द्रियों का समागम पाकर चार अनुयोग नौ संख्या को प्राप्त हो गये । कारण, राजा जयकुमार ऋषभदेव भगवान् के गणधर थे । अतः उन्होंने अपने प्रयास से प्रथमादि चार अनुयोगों का निर्माण किया था ।
जयकुमार के चरित्र पर आधृत कथांश में चमत्कार है ।
एक अन्य ललित उदाहरण देखिए.
भालेन सार्ध लसता सदास्यमेतस्य तस्येव समेत्य दास्यम् । सिन्धोः शिशुः पश्यतु पूर्णिमास्यं चन्द्रोऽधिगन्तुं मुहुरेव भाष्यम् ॥
जयकुमार की चारित्रिक विशेषताओं से कथानक में चमत्कार उत्पन्न हुआ है।
चमकने वाले ललाट के साथ इस राजा का मुख डेढ चन्द्रमा के समान था। वह बड़ा सुन्दर था । अतः समुद्र का पुत्र यह चन्द्रमा आहह्लादनीय प्रभा के भाष्य का अध्ययन करने के लिए इस राजा के मुख का शिष्य बनकर बार-बार पूर्णिमा को प्राप्त हो, अर्थात् जयकुमार का मुख डेढ़ चन्द्रमा के समान था। उसकी समानता पाने के लिए चन्द्रमा यद्यपि बार- बार पूर्णिमा तक पहुँचता था, फिर भी उसकी दासता स्वीकार न करने के कारण एक चन्द्रमा ही रहकर उसके समान प्रभा न पा सका ।
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प्रख्यातवृत्त का मनोहारी उदाहरण देखिए
कण्ठेन शडखस्य गुणो व्यलोपि वरो द्विजाराध्यतयाऽधराडेपि । कणों सवर्णो प्रतिदेशमेष बभूव भूपो मतिसन्निवेशः ॥
1. जयोदयमहाकाव्य, पूवार्ध, 1/34 2. वही, 1/55
3. वही, 1/62
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