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प्रथम अध्याय आचार्य क्षेमेन्द्र, उनका कविकण्ठाभरण और चमत्कार का स्वरूप
- आचार्य क्षेमेन्द्र आचार्य क्षेमेन्द्र संस्कृत भाषा के महाकवियों में अलौकिक प्रतिभा से मण्डित ग्यारहवीं शताब्दी के असाधारण ग्रन्थकार थे। उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा संस्कृत वाङ्मय को विभूषित किया। क्षेमेन्द्र कश्मीर के निवासी थे। कश्मीर में सरस्वती का निवास माना जाता था। भक्तों का विश्वास है कि वृन्दावन की सीमा के बाहर श्रीकृष्ण कहीं नहीं जाते अर्थात् वहीं पर निवास करते हैं। महाकवि विल्हण कहते हैं कि सरस्वती भी कश्मीर को छोड़कर कहीं नहीं जाती।
सरस्वती के इस वरद पुत्र ने साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में अपना जोहर दिखलाया। जब इनका जन्म हुआ तब कश्मीर देश का वातावरण अराजकता, असन्तोष, षड्यन्त्र, रक्तपात से घिरा हुआ था वहाँ का राजा अनन्त स्वयं मानसिक रूप से दुर्बल था। तभी तो उसने 1063 ई. में अपने ज्येष्ठ पुत्र कलश को राज्य देकर कुछ वर्षों के बाद पुनः ग्रहण कर लिया। इसके अनन्तर 1077 ई. में राजकार्य से विरत होकर कुछ समय के बाद 1081 ई. में उसने आत्महत्या कर ली।
इन्हीं पिता - पुत्र अनन्त (1028 ई. से 1063 ई.) तथा कलश (1063 ई. - 1089 ई.) के राज्यकाल में क्षेमेन्द्र की जीवनयात्रा सम्पन्न हुयी। यह कश्मीर के महाराज के राजकवि थे।
इतनी अराजकता के वातावरण में भी अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल से अनेक उपदेशप्रद काव्यग्रन्थों का प्रणयन किया।
आचार्य क्षेमेन्द्र का स्थिति काल 1050 ई. तथा उनके अन्तिम ग्रन्थ दशावतारचरित का रचना काल 1066 ई. है जिनका संकेत स्वयं ग्रन्थकार ने किया है। इनकी प्रथम रचना 1037 ई. की है। अतः इनका जन्म 990 ई. के आस-पास हुआ था। इन्होंने अपने ग्रन्थ बृहत्कथा मञ्जरी में स्वयं लिखा है कि यह सिन्धु के प्रपौत्र, निम्नाशय के पौत्र तथा प्रकाशेन्द्र के पुत्र थे। इनका परिवार बहुत सम्पन्न था, इनके पिता दानी और उदार थे।
आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने को सर्वमनीषी शिष्य कहा है। जिससे पता चलता है कि ये गुणग्रहण के लिए दूसरों के शिष्य बनने में अपनी हेठी नहीं