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________________ शान्त रस का एक और श्लोक - श्रीयुक्तदशधर्मोऽपि नवनीताधिकारवान्। । तत्वस्थिति.प्रकाशाम स्वात्मनेकायितोऽप्यभूत्॥.... जयकुमार के तपस्वी होने के पश्चात् उनके आन्तरिक गुणों में और वृद्धि हो गयी। शोभा सहित क्षमादि दश धर्मो से युक्त होकर भी वे नो धर्मो के अधिकार से सहित थे जीवादि सात तत्वों की स्थिति का प्रकाश करने के लिए एक स्वकीय आत्मा के साथ ही एकत्व को प्राप्त थे। परिहार पक्ष में - वे दश धर्मो के अधिकार से युक्त होकर भी नवनीत मक्खन के समान कोमलता के अधिकारी थे। संसार का उच्छेद करने वाली वास्तविक स्थिति का प्रकाश करने के लिए वे स्वकीय आत्मा के साथ एकत्व को प्राप्त हुए थे। शान्त रस के माध्यम से मोक्ष की महत्ता दर्शायी गयी है। __ आचार्य ज्ञान सागर जी ने अपने ज़योदय महाकाव्य में सभी रसों का बड़ी सुगमता से वर्णन किया है। इनको अगर रससिद्ध कविश्वर कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जयोदय महाकाव्य में श्रृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, करुण, भयानक अद्भुत एवं बीभत्स सभी रसों की व्यंजना की गयी है। कोई भी रस अछूता नहीं रहा है। शान्त रस काव्य का अंगी रस है। जयोदय महाकाव्य में शान्तरस की धारा गंगा के रूप में और श्रृंगार रस की धारका यमुना रुप में तथा वीररस की धारा सरस्वती रुप में प्रवाहित किया है। त्रिवेणी का संगम हमें महाकाव्य के माध्यम से हो जाता है। शान्तरस रुपी गंगा ने अपने प्रवाह से सभी को अभिष्कित किया है। तो हास्य, अद्भुत, बीभत्स, रौद्र आदि रस छोटी-मोटी पहाड़ी नदियां हैं जो समय समय पर इस गंगा में मिलकर उसकी और महत्ता बढ़ा देती है। .. 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 28/40 263
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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