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- संसार की क्षण भंगुरता को जानकर जयकुमार वन में चले जाते हैं। वन में भगवान् आदिनाथ के समवसरण में पहुँच कर मोक्ष के लिए ऋषभदेव से विनयपूर्वक स्तुति की कि है रागादि दोष तथा ज्ञनावरणादि कर्मो से रहित । देव! भक्ति के वशीभूत चतुर मनुष्य आपका ही ? आश्रय लेते हैं, अतः तत्त्वज्ञान के लिए में शीघ्र ही आपको नमस्कार करता हूँ और चाहता हूँ कि अब कामदेव के अस्त्र शस्त्रों की धारा मुझे न देखे।
.. जग्मुर्निधूतिसत्सुखं समधिकं निर्देशतातीतिपं
यस्मादुत्तमधर्मतः सुमनसस्ते शश्वदुद्भासितम्। कुज्ञानातिगमन्तिमं स मनसा तेनार्जितः सिद्धये
येनासो जनिरायतिः सकुशला पंचायतच्छित्तये॥ जयकुमार ने जिनेन्द्रदेव के धर्मोपदेश को बड़ी श्रद्धा से ग्रहण किया व निर्ग्रन्थ दीक्षआ धारण की।
पवित्र चित्तवाले वे प्रसिद्ध महापुरुष समता के समुद्र वचनागोचर स्थायी, कुज्ञान से रहित और अन्तिम सर्वोत्कुष्ट निर्वाण सुख को प्राप्त हुए थे और जिसके द्वारा वर्तमान जीवन तथा आगामी जीवन कुशलता से युक्त होता है, उस उत्तम धर्म को जयकुमार ने पंचन्द्रियों की प्रकृति का विघात करने एवं मुक्ति प्राप्त करने के लिए हृदय से स्वीकृत किया। शान्तरस का चमत्कार -
सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः।
स राजापि तपस्वी सन् समक्षोप्यक्षरोधकः। जयकुमार ने भगवान् ऋषभ देव से धर्म उपदेश सुनकर तपस्वी हो जाते हैं व दिगम्बर मुद्रा को धारण कर लेते हैं।
वह मुनि जयकुमार सदाचार-निरन्तर परिभ्रमण से रहित होकर भी सदाचारपरायण थे, निरन्तर परिभ्रमण करने में तत्पर रहते थे। (परिहार पक्ष में स्वाध्याय आदि समीचीन आचरण में तत्पर थे) राजा होकर भी तपस्वी थे (परिहार में राजा-सुन्दर शरीर वाले होकर भी तपस्वी थे) और समक्ष पंचेन्द्रियों से सहित होकर भी अक्षरोधक इन्द्रियों का निरोध करने वाले थे (परिहार पक्ष में समक्ष-सर्वसाधारण के गोचर-मिलने के योग्य अथवा समीचीन अक्ष आत्मा से सहित थे) शम स्थायी भाव होने से शान्त रस निष्पन्न होता है। 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 27/66 2. वही उत्तरार्ध, 28/5 2008
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