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________________ होने से उनके भीतर जो पाप के कुत्सित अंश थे वे रोमांच समूह के छल से बाहर निकल आये हों। शान्त रस - जयोदय महाकाव्य का अङगी रस शान्त रस ही है अतः इनके प्रचुर उदाहरण यहाँ उपलब्ध है। यथा - ___ यस्यान्तरङगेऽदुतबोधदीप: पापप्रतीपं तमुपेत्य नीपः। । स्वयं हि तावज्जडताभ्यतीत उषेति पुष्टि सुमनप्रतीतः॥ जयकुमार वन क्रीड़ा के लिए जाते हैं। वहाँ उन्हें मुनिराज के दर्शन होते है। जब वे दर्शन के लिए जाते है तो देखते हैं कि समस्त वन मुनि राज के आतिथ्य में संलग्न हो जाता है। जिसके अन्तर में अद्भुत ज्ञानरुपी दीपक जगमगा रहा है उस पाप के शत्रु महर्षि को प्राप्त कर यह कदम्ब का वृक्ष अपने आप जड़ता से रहित हो फूलों से व्याप्त होता हुआ पुष्ट हो रहा है। इसमें मुनिराज शान्त के आलम्बन विभाव के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। वन उद्दीपन विभाव है, हर्ष आदि व्यभिचारी भाव रुप से हैं। शम नामक स्थायी भाव होने से शान्त रस की अभिव्यक्ति करता है। शान्त रस का रम्यरुप देखिए - भुवि महागुणमार्गगणशालिना सुविधधर्मधरेण च साधुना। - अभयमडिगजनाय नियच्छता यद्यपि मोक्षपरस्वतयास्थितम्॥ ये मुनिराज इतने गुण सम्पन्न हैं कि प्राणियों को जीवन देना इनके वश में है। इस भूमण्डल पर ये साधू मुनिराज गुणस्थान और मार्गणाओं की चर्चा से सम्पन्न हैं, उत्तम विधियुक्त धर्म के धारक हैं। तथा प्राणिमात्र को अभ्य दान देते हैं। फिर भी ये मुक्ति प्राप्त करने में तत्परता से लगे हुए हैं। गुण (प्रत्यंचा) और मार्गणों (बाणों) से युक्त, उत्तम र्ध (धनुष) के धारक ये साधुराज प्राणिमात्र को अभयदान देते हुए भी अचूक निशाना लगाने में भी तत्पर हैं। आत्मने हितमुशन्ति निश्चय व्यावहारिकमुताहितं नयम्। विद्धि त पुनरदः पुरस्सरं धान्यमतिस्त न विना तृणोत्करम्॥ जयकुमार के पूछने पर मुनिराज ने गृहस्थों के हित के लिए कल्याणकारी 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 1/85 2. वही, 1/98 3. वही, 2/3 000000000000033333333300 388888888888888888835265823588638680538086868605868863868688688 E 8 %88856006 0 0
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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