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स्वयंबर सभा में सुलोचना के द्वारा जयकुमार के गले में स्वयंबर माला डालने से अर्ककीर्ति रोष में आ जाता है तथा सुमति नाम के मंत्री के भडकाये जाने पर वह युद्ध की घोषणा कर देता है ।
अकम्पन यह समाचार सुनकर हृदय से काँप उठा और उसने सभा में मंत्रियो के समुदाय को बुलाया। कारण झगड़े की बात सुनकर उसके मन में व्यथा पैदा हो गयी। ठीक ही है, क्या कभी कोई पथिक उचित मार्ग से हट सकता है।
भय नामक स्थायी भाव होने से भयानक रस निष्पन्न होता है । एकअन्य निदर्शन अवलोकनीय है
विलूनमन्यस्य शिरः संजोष प्रोत्पत्तयखात्संपतदिष्टपौषम् । वक्रोडुपे किम्परुषाडगनाभि: क्लृप्तावलोक्याथ च राहुणा भीः ॥
जब जयकुमार व अर्ककीर्ति के बीच युद्ध हो रहा था तो युद्ध स्थल पर योद्धाओं के विदीर्ण का चित्रण कवि ने भयानक रस के माध्यम से किया
है ।
जोश के साथ छेदा गया किसी योद्धा का सिर आकाश में उछल कर वापस पृथ्वी पर गिरने जा रहा था । उसे उस तरह आता देख कर वहाँ स्थित किन्नरियाँ भयभीत हो उठी कि कहीं हमारे मुख चन्द्र को राहु ग्रसने के लिए तो नहीं आ रहा है ।
भयमय विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के माध्यम से तथा भय स्थायी भाव होने से भयानक रस की पुष्टि होती है ।
बीभत्स रस :
अप्राणकैः प्राणभृतां प्रतीकेरमानि चाजिः प्रतता सतीकैः । अभीष्टसंभारवती विशाल सौ विश्वस्त्रष्टुः खलु शिल्पशाला ॥
जयकुमार व अर्ककीर्ति के युद्ध के पश्चात् रण भूमि की स्थिति इतनी करुणामयी हो गयी थी जिनके प्राण निकल कर हाथ पैर कट गये थे वे बीभत्स रस की पुष्टि करा रहे थे ।
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वह रणभूमि योद्धाओं के कटे निष्प्राण हाथ, पैर, सिर आदि अवयवों से भर गयी थी। कुछ लोगों को वह ऐसी प्रतीत होती थी मानों वांछित सामग्रीपूर्ण विश्वकर्मा की शिल्पशाला हो ।
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 7/55
2. वही, 8/37
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