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________________ विभाव है । प्रतिद्वन्द्वी के साथ युद्ध प्रवृत्ति अनुभाव है, आवेग व्यभिचारी भाव है । उत्साह स्थायी भाव होने से वीर रस की अभिव्यक्ति होती है । वीर रस का चमत्कार देखिए इतोऽयमर्कः स च सौम्य एष शकुः समन्ताद् ध्वजवस्त्रलेशः । रक्तःस्म को जायत आयतस्तु गुरुर्भटानां विरवः समस्तु ॥ केतुः कबन्धोच्वलनैकहेतुस्तमो मृतानां मुखमण्डले तु । सोमो वससिप्रसरः स ताभि: शनेश्चरोऽभूत्कटको घटाभिः । मितिर्यतः पञ्चदशत्वमा ख्यन्नक्षत्रलोकोऽपि नवत्रिकाख्यः । क्वचित्परागो ग्रहण च कुत्रि खगोलता भूत्यमरे तु तत्र ॥' - युद्ध भूमि हमें खगोल की भाँति दिख रही थी क्योंकि एक ओर तो अर्क (सूर्य और अर्ककीर्ति ) था तो दूसरी ओर सोम का पुत्र बुद्धिमान (बुध) जयकुमार। ध्वजाओं का वस्त्र शुक्र (सफेद) था तो योद्धाओं के शरीर से बहा रक्त (मंगल) तो भूमि पर हो रहा था योद्धाओं का शब्द गुरु ( गुरुग्रह) था, अनेक कबन्धों का उछलना केतु का काम कर रहा था । मरे योद्धाओं के मुख पर तम (राहु) था और चमकती तलवारें चन्द्रमा का काम कर रही थी। साथ ही हाथियों की घटा से व्याप्त होने के कारण सारा सेना समूह शनेश्चर बन रहा था, अर्थात् धीरे धीरे चल रहा था । वहाँ का अनुमान अन्त में मरणरुपी पन्द्रह तिथियों का स्मरण कराता था । रणभूमि में क्षत्रिय लोग पीठ नहीं दिखाते थे । अतः 27 नक्षत्र थे। कहीं तो पराग - चन्द्रमा का ग्रहण ( राग से रहित होना) था तो कहीं धर-पकड़ होती थी जो सूर्यग्रहण का स्मरण कराती थी । कवि वीर रस के माध्यम से युद्ध स्थल का कितना स्वाभाविक चित्रण किया है । इस श्लोक में जयकुमार व अर्ककीर्ति आलम्बन विभाव है, योद्धाओं के शरीर से बहता रक्त उद्दीपन विभाव, रणभूमि अनुभाव है, कोलाहल होना व्यभिचारी भाव है । उत्साह इसका स्थायी भाव है। वीररस का अन्य निदर्शन निपातयामास भटं धरायामेकः पुनः साहसितामथायात् । स तं गृहीत्वा पदयोश्च जोषं प्रोत्क्षिप्तवान् वायुपथे सरोषम् ॥ 1 सेनानियों के साहसिक कार्य का वर्णन इस श्लोक में किया गया है। कि एक वीर ने दूसरे वीर को जमीन पर गिरा दिया। वह गिरा हुआ मनुष्य 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 8/20-22 2. वही, 8/25 255
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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