SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीररस निर्गमेऽस्य पटहस्य निःस्वनो व्यानशे नभसि सत्वरं घनः । येन भूभृदुभ्यस्य भीमयः कम्पमाप खलु सत्तवसञ्चयः ॥ जयकुमार व अर्ककीर्ति के बीच युद्ध की जब घोषणा कर दी गयी तब जयकुमार अपने दल-बल के साथ अर्ककीर्ति से युद्ध के लिए जाने लगा । इस प्रकार सज धन के साथ जयकुमार निकला तो उसके भैरी की तेज आवाज शीघ्र ही सारे ब्रह्माण्ड में फैल गयी। फलतः दोनों तरफ से भूभृतों ( राजा और पर्वतों का) आत्मभाव व प्राणिवर्ग निश्चय ही भयभीत होकर कांपने लगा । इसमें वीररस का सागर लहराता हुआ प्रतीत होता है । निम्नाडिकत श्लोक में वीर रस की व्यंजना देखिए अश्रुनीरमधुना सकज्जलमादधो रिपुवधूपयोधरः । दिकुलं खलु रजोऽन्वितं तदुत्पातमस्य गमनेऽरयो विदुः ॥ जयकुमार व सेना को देखकर शत्रु पक्ष अपने आपको निर्बल समझने लगा और उनकी स्त्रियों की बड़ी कारुणिक दशा हो गयी । जयकुमार के द्वारा प्रयाम के समय शत्रुओं की वधुओं के पयोधर कज्जलयुक्त आसुओं की बूंदों से छा गये । दसों दिशाएँ एवं आकाश धूलि से व्याप्त हो गया, तो शत्रुओं ने समझा कि उनकी यात्रा में उत्पात हो गया । अर्ककीर्ति इसका आलम्बन विभाव है। युद्ध के प्रयाण अनुभाव गर्व आदि व्यभिचारी भाव है । उत्साह स्थायी भाव होने से वीर रस निष्पन्न होता है। - समुद्ययो संगजगं गजस्थः पत्तिः पदातिं रथिनं रथस्थः। अश्बस्थितो श्वाधिगतं समिद्धं तुल्यप्रतिद्यन्द्रि बभूव युद्धम् ॥ जयकुमार व अर्ककीर्ति के बीच जब युद्ध हो रहा था तब उनकी सेना में परस्पर इस प्रकार युद्ध हो रहा था कि गजाधिर के साथ गजाधिप, पदाि के साथ पदाति, रथारूढ़ के साथ रथारूढ़ और घुडस्वार के साथ घुडसवार जूझ पडे । इस प्रकार अपने अपने समान प्रतिस्पर्धी के साथ भीषण युद्ध हुआ । इस श्लोक में प्रतिपक्षी योद्धा आलम्बन विभाव है, उनकी चेष्टाएँ उद्दीपन 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 7/97 2. वही, पूवार्ध, 7/99 3. वही 8/11 254
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy