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________________ अर्ककीर्ति को अपने खड्ग पर गर्व है कि वह सबको अपने अधीन कर सकता है। यह मेरा खड्ग राजाओं की मेरी आज्ञा में रखने वाला और मेरे वश में है। इसलिए यह काशीपति अकम्पन का नाश कर उस भाग्यशालिनी कन्या को मेरे पास यहाँ ला देगा। ___ अर्ककीर्ति के क्रुद्ध होने से रोद्ररस की अभिव्यक्ति होती है। अपनी वीरता की प्रशंसा करना अनुभाव है, उग्रता, मोह व्यभिचारी भाव है। रौद्र रस का चमत्कार देखिए - क्षमायामस्तु विश्रामः श्रमणानां तु भो गुण। सुराजां राजते वंश्यः स्वंय माञ्चकमूर्धनि॥ अर्ककीर्ति जयकुमार से युद्ध की घोषणा करता है तो उसका मंत्री स्वामी का हित चाहता हुआ शुभ वचनों के द्वारा उनको समझाता है, लेकिन मद अभिमानी अर्ककीर्ति पर उसके वचनों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है और वह मंत्री से कहता है सुनो। क्षमा बोलकर विश्राम लेने वाले तो श्रमण होते हैं। क्षत्रियों का पुत्र तो अपने बल द्वारा सिंहासन के सिर पर आरूढ़ होता मन में स्थित जयकुमार विभाव, सुलोचना के द्वारा माला पहनाना उद्दीपन विभाव है, प्रतिशोध की भावना अनुभाव है। ईर्ष्या संचारी भाव है। द्रौद्र का एक और निदर्शन - यत्यतेऽथ सदपत्यतेजसा सार्पिता कमलमालिकाऽजजसा। मूर्छिताऽस्तु न जयाननेन्दुना तावतार्ककरतः किलामुना॥ अर्ककीर्ति दूत से कहता है कि हे सज्जनात्मज! जयकुमार के कण्ठ में सुलोचना द्वारा अर्पित वह पद्यमयी वरमाला जयकुमार के मुख चन्द्र से मुरझाने न पाये, निश्चय ही इसलिए सूर्य के कर स्वरूप अर्ककीर्ति के हाथों, तेज से यह प्रयत्न किया जा रहा है। जयकुमार आलम्बन विभाव है। अर्ककीर्ति इसका आश्रय है। सुलोचना द्वारा वरमाला डालना उद्दीपन विभाव है, वीरता की प्रशंसा करना अनुभाव है, मोह आदि व्यभिाचीर भाव है। .. क्रोध स्थायी भाव होने से रौद्र रस निष्पन्न होता है। 1. जयोदय पूर्वार्ध 7/46 2. वही, पूवार्ध, 7/64
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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