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अयि याहि च पूज्यपूजया स्वयमस्मानपि च प्रकाशय। जननीति परिसूताश्रुभिर्बहुलाजां स्तनुते स्म योजितान्। युग्मम॥
इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब सुलोचना विवाह के पश्चात् अपने घर से विदा हो रही है और उसकी माता उसको कर्तव्यता का ज्ञान कराती है।
सुलोचना की माता विदाई के समय बोली है पुत्री, तुझे विदा करते समय मेरा मन बहुत खिन्न हो रहा है, किन्तु किया क्या जाय, ललना जाति के लिए यह व्यवहार तो अनिवार्य ही है। इसलिए हे तनये जाओ और पूज्य पुरुषों की पूजा करके अपने आपको भी और हमें भी उज्जवल बनाओ। इस प्रकार कहते हुए आँखों से निकले आँसुओं से मिश्रित खील सुलोचना के मस्तक पर डाले।
कवि ने करुण रस का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण किया है। रौद्र रस -
कल्यां समाकलय्योग्रामेनां भरतनन्दनः।
रक्तनेत्रो जवादेव बभूव क्षीबतां गतः। राजकुमारी सुलोचना स्वयंबर सभा में उपस्थित अनेक राजकुमारों के स्थान पर जयकुमार का वरण कर लेती है। इससे दुर्मर्षण खिनन हो जाता है
और अपने स्वामी अर्ककीर्ति का अपमान समझकर उनको जयकुमार के प्रति उकसाता है। इससे, अर्ककीर्ति जयकुमार व सुलोचना के पिता अकम्पन के प्रति क्रोध से प्रज्वलित हो जाता है।
इस प्रकार दूर्मर्षण की उग्र वाणी रुप तेज मदिरा पीकर भरत सम्राट का पुत्र शीघ्र ही मदमत्त होता हुआ लाल नेत्रों वाला बन गया।
__ अर्ककीर्ति इस रस का आश्रय है। दुर्मषण के वचन उद्दीपन विभाव हैं। नेत्रों का लाल होना अनुभाव है, मदमत्त होना व्यभिचारी भाव है। क्रोध स्थायी भाव होने से रौद्र रस निष्पन्न होता है। एक दूसरा मंजुल उदाहरण द्रष्टव्य है -
राज्ञामाज्ञावशोऽवश्यं वश्योऽयं भो पुनः स्वमम। नाश काशीप्रभोः कृत्वा कन्या धन्यामिहानयेत्॥
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 7/17 2. वही, 7/22
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