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________________ जयकुमार व सुलोचना के विवाह में पंक्ति भोज के अवसर पर बारातियों और कन्यापक्ष की महिलाओं के बीच हास-परिहास होता है। जब कोई स्त्री जल को परोस रही थी उसका स्वाभाविक चित्रण कवि ने इसमें किया है। जल को परोसने वाली जिस स्त्री का प्रतिबिम्ब जल में पड़ रहा था अतः उस जल को बाराती ने नहीं पिया, किन्तु उसके प्रतिबिम्बत शरीर को देखकर यह बहुत ठंडा है ऐसा कहते हुए उसके अद्भुत सौन्दर्य के देखने के बहाने से उस जल पात्र को उसने हाथ से उठा लिया। हास्य की एक और अभिव्यजंना देखिए - · अपि सात्विकसिप्रभागुदीक्ष्य व्यंजन कोऽपि विधुन्वतीं सहर्षः। कलितोष्ममिषोऽभ्युदस्तवक्त्रो हियमुज्झित्य तदाननं ददर्श॥ किसी बाराती को पसीना आ गया उसे गर्मी से उत्पन्न हुआ समझकर कोई युवती पर पंखा करने लेगी तो उस समय वह भी गर्मी का बहाना करके अपने मुँह को ऊँचा करके उस स्त्री के मुख को सहर्ष देखने लगा। गर्मी के कारण पसीना आना आलम्बन विभाव, पंखा करना उद्दीपन विभाव है, मुख को ऊपर करना अनुभाव, मनोवृत्ति को छिपाना व्यभिचारी भाव है। हास्य स्थायी भाव होने से हास्य रस निष्पन्न होता है। हास्य रस की एक अन्य बानगी द्रष्टव्य है - उपपीडनतोऽस्मि तन्वि भावादनुभूष्णुस्तवकाभ्रकाम्रतां वा। वत वीक्षत चूषणेन भागिन्निति सा प्राह च चुलदा शुभाडगी। कोई स्त्री आम परोस रही थी उसे देखकर कोई बाराती कहने लगा कि तुम्हारे आमों को मैं दाबकरदेख लूं कि ये कैसे कोमल हैं। इस पर वह बोली चूस कर ही देख लो ना। भाव यह है कि वह तो उसे पत्नी रूप में बनाना चाहता ह किन्तु वह उसे माता का भाव प्रकट कर निरुत्तर कर देती है। ___ इस श्लोक में आम्रफल को खाना आलम्बन विभाव है, उसकी और देखना उद्दीपन विभाव, मनोवत्ति को तिरोहित करना व्यभिचारी भाव है। हास्य स्थायी भाव होने से हास्य रस की अभिव्यक्ति होती है। वाणी की विकृति ही हास्य रस का परिचायक है। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 12/1 22 2. वही, 12/127 25000
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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