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________________ उद्दीपन विभाव है, गाढ़ आलिङ्गन अनुभाव है, रति स्थायी भाव तथा विभाव, अनुभाव, संचारी के संयोग से श्रृंगार रस बनता है। मुखारविन्दे शुचिहासकेशरेलिवत् स मुग्धो मधुरे मृगीदृशः। प्रसन्नयोः पादसरोजयोर्दृशं निधाय पद्मापि जयस्य सम्बभो॥ वह जयकुमार मृगनयनी सुलोचना के उज्जवल हास रुपी केशर से युक्त सुन्दर मुखकमल पर भ्रमर के समान मुग्ध होते हुए सुशोभित हो रहे थे और सुलोचना उनके प्रसन्न चरम कमलों में अपनी दृष्टि लगा कर शोभायमान हो , रही थी। इस श्लोक से श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हो रही है। इसका स्थायी भाव रति है। इसमें सुलोचना आलम्बन विभाव, माधुर्य से भरा मुख कमल उद्दीपन है। सुलोचना के नेत्र चरण कमलों में पड़े हैं अनुभाव है। हास्य संचारी भाव है। हास्यरस - दुशि चैणमदः कपोलकेऽऽजनकं हारलतावलग्नके। रशना तु गलेऽबलास्विति रयम्बोधकरी परिस्थितिः। जब काशी नगरी में जयकुमार की बारात निकली, तब जयकुमार को देखने की प्रबल अभिलाषा से स्त्रियों का समूह राजमार्ग में आ गया, जयकुमार को देखने की घबराहट में स्त्रियों ने अपने आभूषणों को ठीक जगह न पहन कर गलत स्थान पर धारण करने लगी। नारियों का अनौचित्य पूर्ण ढंग से आभूषण धारण करना हास्य रस की पुष्टि करता है। उस समय स्त्रियों में हड़बड़ी प्रकट करने वाली यह स्थिति पैदा हो गयी कि किसी ने आँखों में कस्तूरी लगा ली, दूसरी ने कपोलों पर अंजन पोत लिया, किसी के कमर में हार धारण कर लिया तो किसी ने गले में करधनी पहन ली। वेश विकृति के कारण हास्य की व्यंजना हो रही है। निपयो चष्कार्पितं न नीर जलदायाः प्रतिबिम्बतं शरीरम्। समुदीक्ष्य मुद्दीरितश्चकम्पे बहुशे त्यमितीरयंल्ललम्बे।। 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 23/5 2. जयोदय पूर्वार्ध 10/59 3. वही, 12/1 20 (249
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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