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________________ • राजा जयकुमार जब विवाह के लिए राजमार्ग से निकलते है तो स्त्रियों में उनको देखने की उत्सुकता इतनी प्रबल होती है कि सुन्दर नेत्रों वाली किसी स्त्री ने वर देखने की अभिलाषा की, इसी बीच ससुराल के किसी पुरुष ने उसकी और देखा तो उसने अपना बूंघट आगे कर लिया, मानो उसकी दृष्टि ने भौरों को दबा रखने के लिए ही ऐसा किया। इस श्लोक में नायिका आलम्बन विभाव तथा सुन्दर नेत्र उद्दीरन है। पुरुष की और देखना, बूंघट आगे करना अनुभाव है। लज्जित होना व्यभिचारी भाव है। रति स्थायी भाव होने से श्रृंगार रस निष्पन्न होता है। तरलायतवर्तिरागता सा भवदत्रस्मरदीपिका स्वभासा। अभिभूततमाः समा जनानां किमिव स्नेहमिति स्वयं दधाना॥ . सुलोचना के सौन्दर्य का निरुपण करते हुए कवि कहते हैं कि जब सुलोचना को विवाह के लिए मण्डप में लाया गया तो सम्पूर्ण वातावरण प्रकाशित हो गया। चंचल एवं विशाल नेत्रों से युक्त सुलोचना ज्योंही मण्डप में प्रवेश करती है त्यों ही उसने अपनी कान्ति से वहाँ के अन्धकार को दूर कर दिया, वह सुलोचना दर्शकों के लिए स्वयं ही स्नेह को धारण करती हुई कामदेव की दीपिका (उद्दीपन करने वाली) सिद्ध हुई। इस श्लोक में सुलोचना आलम्बन विभाव, चंचल एवं विशाल नेत्रों से युक्त मुख उद्दीपन है। अन्धकार को दूर करना अनुभाव है। रति स्थायी भाव होने से श्रृंगार रस है। • एक अन्य उदाहरण दर्शनीय है - उत्क्रान्तवती कोमारमेषा चञ्चललोचना। स्नेहादिव तथाप्येनां नेव भारःस बाधते। जयकुमार की राज्यसभा में काशी नरेश का दूत उनकी पुत्री राजकुमारी सुलोचना के स्वयंबर की सूचना देकर उसके रूप सौन्दर्य के बारे में बताता है कि हाव-भाव भरे चंचल नेत्रोवाली यह सुलोचना को मार अवस्था पार कर चुकी है, पृथ्वी पर कामदेव को भी तिरस्कृत कर रही है। फिर भी मानों स्वाभाविक स्नेह के वश कामदेव उसे जरा भी कष्ट नहीं दे रहा है। अर्थात् युवावस्था में भी वह निर्विकार चेष्टावाली है। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 10/1 1 3 2. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 3/42 247 5004588888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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