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संयोगात् और निष्पत्तिः इन दो शब्दों को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। जिनमें चार मत प्रधान हैं इनमें भट्टलोल्लट, शकुक, भट्ट नायक तथा अभिनवगुप्त ।
भट्टोल्लट - उत्पत्तिवादी हैं। वे रस को विभावादि का कार्य मानते है।
शंकुक - विभावादिकों के द्वारा रस की अनुमिति मानते हैं। उनके मतानुसार विभावादिकों का रस से अनुमाप्य - अनुमापक सम्बन्ध है।
भट्टनायक - भुक्तिवादी है। उनकी सम्मति में विभावादि का रस से भोज्य - भोजक सम्बन्ध है। जिसे प्रमाणित करने के लिए उन्होंने अभिधा से अतिरिक्त भावकत्व तथा भोजकत्व नामक दो व्यापारों को स्वीकार किया है।
अभिनवगुप्त - व्यक्तिवादी है। उन्हीं का मत अधिक मनोवैज्ञानिक है। इसलिए सभी के द्वारा आदर व श्रद्धा का पात्र है। समग्र स्थायीभाव वासनारुप से सह्रदयों के हृदय में विद्यमान रहते हैं। विभावादिकों के द्वारा ये ही सुप्त स्थायीभाव अभिव्यक्त होकर आनन्दमय रस का रुप प्राप्त कर लेते हैं। मम्मट ने रस का स्वरुप निम्न शब्दों में प्रतिपादित किया है -
कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च। रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि येन्नादयकाव्ययोः॥
विभावअनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः। . व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायोभावो रसः स्मृतः॥
कारण रूप विभाव, कार्य रुप अनुभाव और सहकारी रुप व्यभिचारी भावों से व्यक्त आश्रय में स्थित स्थायी भाव को रस कहते हैं। रस की संख्या के विषय में काव्यशास्त्रियों में मतभेद है। . भरत ने रस संख्या केवल आठ मानी है -
श्रृंगारहास्यकरुणा रोद्रवीरभयानकाः। बीभत्साद्भुतसंज्ञो चेत्यष्टो नाट्ये रसाः स्मृताः॥
भरत ने अपने पूर्ववर्ती ब्रह्मा अथवा द्रुहिण के मतानुसार रस आठ माने हैं। शान्त रस के बारे में बड़ा विवाद है। भरत व धनंजय ने नाटक में शांत रस को अस्वीकार किया है।
अभिनवगुप्त ने अत्यन्त प्रबल शब्दों में बुद्धि-बल से शान्त रस की नाट्य और काव्य दोनों में प्रतिष्ठा की है। इस प्रकार अभिनव गुप्त ने माना है 1. का.प्र., 4/27-28 2. ना. शा. 6/16
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