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विवेचन विशद् और वर्णन सर्वत्र सांगोपांग है। भरत ने नाटक को ही वाङमय का सर्वश्रेष्ठ रुप माना है। नाटक का प्राण रस है, कोई भी नाट्यांग रस के बिना नहीं चल सकता। तत्र रसानेव तावदादावभिव्याख्यास्यामः। न हि रसाद्
ऋते कश्चिदर्पः प्रवर्तते॥ रस परब्रह्म का आनन्द स्वाभाविक है जिसको वह कभी-कभी अभिव्यक्त करता है। उसी अभिव्यक्ति का नाम चैतन्य चमत्कार अथवा रस है।
काव्यस्य शब्दार्थों शरीरम् रसादिश्चात्मा, गुणः शोर्यादिवत् दोषाः काणत्वादिवत्, रीतयोऽवयवसंस्थानविशेषवत् अलंकाराः कटककुण्डलादिवत्।
रस वस्तुतः काव्य का प्राण है। जिस तरह प्राण शरीर के अन्दर अवस्थित रहकर स्वयं को प्रकाशित करता है, वैसे ही रस शब्दार्थ के अन्दर अवस्थित रहकर स्वयं को प्रकाशित करता है। साहित्यशास्त्रियों के अनुसार -
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के द्वारा आस्वादन योग्य किया गया स्थायी भाव ही रस कहलाता है -
विभावेरनुभावैश्च सात्विकैव्यभिचारिभिः।
आनीयमानः स्वाद्यत्वं स्थायीभावो रसः स्मृतः।। काव्य रस से प्राप्त आनन्द चमत्कार काव्य कोश, नाट्य दोनों के समावेश कौशल पर आधृत होता है।
यथा एभ्यश्च सामान्यगुणयोगेन रस निष्पद्यन्ते
अर्थात इन भावों को सामान्य रूप से प्रस्तुत किया जाता है तो रसों की निष्पत्ति होती है। (नाट्यशास्त्र का. म. पृ. 106) .
रस के सम्पूर्ण विवेचन का आधार भरत मुनि का यह प्रसिद्ध सूत्र तत्र विभावानुभाव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। देखने से तो यह सूत्र जितना छोटा है विचार करने पर उतना सार गर्भित है। भरत मुनि ने इसका जो भाष्य लिखा है वह बड़ा ही सुगम है।
भरत सूत्र के टीकाकारों ने भिन्न - भिन्न व्याख्याएं की हैं। भरत सूत्र में 1. ना. शा., सन्दर्भ अध्याय संख्या दो 2. दशरूपक, 4/1
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