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________________ सप्तम अध्याय रसगत चमत्कार तथा जयोदय रसगत चमत्कार इस भारतीय काव्यशास्त्र का बहुचर्चित शब्द है 1 लौकिक रस एवं काव्य जगत के रस में बहुत अन्तर है। वेदों में रस शब्द का अर्थ सोमरस के अर्थ में किया गया है। ऋग्वेद में सोमरस का प्रशस्त वाणी में स्तवन किया गया है । त गोभिर्वृषणं रसं मदाय देव वीतये । सुतं भराय संसृज । देवों मद करने के लिए उस अभियुत और अभीष्टवर्षक सोमरस में गव्य मिलाओ । रस का आध्यात्मिक अर्थ उपनिषद् में और भी स्पष्ट हो जाता है । रसो वै सः, रसं हयेवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति । वह रस रुप है इसलिए रस को पाकर जहां कहीं रस मिलता है उसे प्राप्त कर मनुष्य आनन्दमग्न हो जाता है । राजशेखर के कथानानुसार नन्दिकेश्वर ने ब्रह्माजी के उपदेश से सर्वप्रथम रस का निरुपण किया । परन्तु नन्दिकेश्वर के रस विषयक मत का पता नहीं चलता । रस सिद्धान्त का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ नादयशास्त्र है । जो भरत मुनि की रचना के रुप में प्रसिद्ध है। इसमें रस के अंग- उपांगों का पर्याप्त विस्तार से विवेचन किया गया है। नाट्यशास्त्र के छठे और सातवें अध्याय में रस और भाव का निरुपण प्रस्तुत किया गया है। अन्य अध्यायों में रस की शेष सामग्री नायिका के अंगज, सहज और अयत्नज अलंकार, कामदशा तथा अवस्था अनुसार नायिका के वासकसज्जा आदि आठ भेद, प्रकृति के अनुसार उत्तम मध्यम, अधम नायक-नायिका के भेद तथा दूती प्रसंग की चर्चा है। इसके अतिरिक्त संगीत, आभूषण आदि के प्रयोग, वाद्य-यन्त्रों के प्रयोग आदि में भी रस का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार नाट्यशास्त्र में सम्पूर्ण रस कलेवर मिल जाता है । भरत का 1. ऋग, 9.6.6 2. ते. उप., 2.7 243
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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