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पूरे श्लोक में विरोध मूलक शब्दों का प्रयोग है। अतः विरोध का परिहार यह है कि वह गुप्तचर के हीन (अर्थात् गुप्तचर शून्य होकर जन वर्ग से पृथक थे) सदाचार में तत्पर थे। वह दीर्तिमान (कान्तिशाली) होते हुए भी तपश्चर्या में प्रवृत्त थे। वगह सबके प्रति समान दृष्टि रखते हुए अक्षनिरोधक अर्थात् जितेन्द्रिय थे। अतिश्योक्ति अलंकार -
विवक्षा या विशेषस्य लोकसीमातिवर्तिनी।
असावतिशयोक्तिः स्यादलंकारोत्तमायथा॥ (प्रस्तुतवस्तुगत अतिशय अथवा उत्कर्ष) की लोकिक वाम व्यवहार का अतिक्रमण करने वाली विवक्षा (विवक्षाप्रेरित वर्णन) अतिशयोक्ति है जो अलंकारों में श्रेष्ठ अलंकार है।
जयोदयं महाकाव्य में अतिशयोक्ति गत चमत्कार - गुणस्तु पुण्येक पुनीतमुर्तेर्जगन्नगः संग्रथितः सुकीर्तेः। कन्दुत्वमिन्दुत्वि डनन्यचौरेरूपेति राज्ञो हिमसारगौरेः।।
चन्द्राकिरणों को लजाने वाले, कपूर से स्वच्छ गुणों द्वारा गूंथा यह जगत रुप पहाड़ पुण्य की एकमात्र पवित्र मूर्ति राजा जयकुमार की कीर्ति का गेंद बन जाता है अर्थात् जैसे कोई स्त्री गेंद से खेलती है, वैसे ही जयकुमार की कीर्ति जगत् रुपी गेंद से खेलती है।
___ इस श्लोक में सम्बन्ध सम्बन्धाभाव में सम्बन्ध की कल्पना की गयी है। इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य है - चित्रभित्तिषु समर्पितदृष्टो तत्र शश्वदपि मानवसृष्टो।
निनिमेषनयनेऽपि च देवव्यूह एव न विवेचनमेव॥ अकम्पन की काशी नगरी का वर्णन करते हे कहा है कि वहाँ नगरी की चित्रयुक्त भित्तियों में एकटक दृष्टि लगाने वाले मानव समूह और निर्निमेष नयनवाले देवों के समूह में परस्पर विवेक प्राप्त करना बड़ा ही कठिन हो गया था। भेद में अभेद मूलक अतिशयोक्ति अलंकार है।
1. का. प्र., 2. जयोदय महाकाव्य, पूर्वार्ध, 1/10 3. वही, 5/19
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