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________________ वाला नहीं, किन्तु सदा पवित्र उज्जवल चरित्र वाला था । इस प्रकार से वह विचित्र प्रकार का था । शाब्दिक विरोध होने से विरोधाभास अलंकार है । क्योंकि जो अच्छे अंगोवाला होता है वह अनंगरम्य अर्थात् अंग की रमणीयता से रहित नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो अजल स्बाव हो वह समुद्र नहीं हो सकता। जो पर्वत का तोड़ने वाला न हो वह वज्रधारी नहीं हो सकता। एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है यः पडकजातपरिकृच्च पुनः सुवृत्तो राजाध्वरोधि अपि सत्पथसंप्रवृत्तः । एवं विरुद्धभवनोऽप्यविरोधकर्ता हे विश्वभूषण! विभाति दिनस्य भर्ता ॥ इस श्लोक में विरोधाभास अलडकार द्वारा सूर्य का सुन्दर वर्णन किया गया है । पद्य में आर्य सभी विशेषण विरोध और परिहार पक्ष में आयोजित होते हैं । - विरोध पक्ष में यह सूर्य जिसका भवन पक्षियों के रोध से सहित है, ऐसा होकर भी पक्षियों के रोध का कर्ता नहीं है । परिहार में जिसे नक्षत्रों का निवास विरुद्ध प्रतिकूल है। ऐसा होकर भी पक्षियों के रोध को करने वाला नहीं है, अर्थात् पक्षियों के संचार को करने वाला है। विरोध में राजमार्ग का विरोधी होकर भी समीचीन मार्ग में चलने वाला है। परिहार पक्ष में राजा चन्द्रमा के मार्ग को रोकने वाला होकर भी नक्षत्रों के मार्ग आकाश में अच्छी तरह प्रवृत्त है । विरोध में पाप समूह का सम्पादक होकर भी आचार से सहित है । परिहार में कमलों का परिकृत पोषक होकर भी गोल है । विरोधाभास का चित्ताकर्षक उदाहरण देखिए सदाचारविहीनो ऽपि सदाचारपरायणः । स राजापि तपस्वी सत् समक्षोऽप्यक्षरोधकः ॥ थे कवि ने जयकुमार के उत्कृष्ट चरित्र की अभिव्यंजना में विरोधाभास का प्रयोग किया है । राजा जयकुमार सदाचारहीन होते हुए भी सदाचार में तत्पर रहते थे, राजा होकर भी तपस्वी थे, समदृष्टि रखते हुए भी समदृष्टि निवारक | 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 18/76 2. वही, 28/5 - 237
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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