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निग्रन्थाधिपति मुनि महाराज को देखकर कुलीन बकुल वृक्ष मानो निदोष मूलगुणों को ही प्राप्त हो रहा है। इसलिए वह बन्धुओं के द्वारा किये गये मद्य के कुल्लों के बिना ही फूल रहा है, जबकि बकुल वृक्ष मानिनी के मदभरे मद्य के कुल्लों से खिलता है। ऐसा कवि समय है।
इस श्लोक में विभावना अलंकार है, क्योंकि कारण के बिना खिलना रुप कार्य सम्पन्न हो रहा है। इसमें विभावना की अद्भुत संयोजना है। विभावना का चमत्कार -
तेजिस्विनः करेणापन्ना मृक्षणतनुरासीत् सा स्विन्ना। समुदियाय तस्या यदपाडगश्चित्रं सोऽभूत्कण्टकिताङगः॥
मक्खन जैसे शरीर वाली सुलोचना का जब अग्नि के समान तेजस्वी जयकुमार हाथ से स्पर्श करते थे तो वह स्वेद से युक्त हो जाती थी। इसमें आश्चर्य की बात नहीं थी कयोंकि अग्नि के सम्पर्क से मक्खन पिघलता ही है परन्तु जब सुलोचना का अपाङग कटाक्ष (अङगहीन) उदित होता तो कुमार का शरीर कण्टकित-रोमांचित अर्थ व कांटो से युक्त हो जाता था - यह आश्चर्य की बात थी, क्योंकि अङगहीन व्यक्ति के द्वारा कांटों का विस्तार करना सम्भव नहीं है। पर ऐसा वर्णन किया गया है। अतः कारण के बिना कार्य का वर्णन होने से विभावना है। विरोधाभास अलडकार -
विरोधः सो विरोधेऽपि विरुद्धत्वेन यद्धचः।
जहाँ विरोध न होने पर भी जो दो वस्तुओं का विरुद्धों के समान वर्णन होता है वहाँ विरोधाभास अलङकार होता है। यह दस प्रकार का होता है।
जातिश्वचतुर्भिर्जात्यायैर्विरूद्धा स्याद् गुणस्त्रिभिः।
क्रिया द्वाभ्यामपि द्रव्यं द्रव्येणेवेति ते दश। जयोदय महाकाव्य में विरोधाभास गत चमत्कार -
अनडगरम्योऽपि नदडगभवादभूत समुद्रोऽ प्यजडस्वभावात्। न गोत्रभित्किन्तु सदा पवित्रः स्वचेष्टितेनेत्वमसो विचित्रः।।
राजा जयकुमार सुन्दर शरीर होने से कामदेव के समान सुन्दर था। मंदबुद्धि न होने से मुद्राओं से भी युक्त था। वह अपने गौत्र को मलिन करने 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 22/38 2.का. प्र. 10/166 3. वही, 10/167 4. जयोदय पूर्वार्ध 1/41
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