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शुद्धात्मज्ञान का स्तवन होता है क्योंकि वह निरीहता का हेतु है ठीक ही है, क्योंकि जो मनुष्य जिस वस्तु का इच्छुक होता है वह उसी के लिए उपाय करता है, संघर्ष करता है। .
यहाँ पर अर्थान्तरन्यास से मुनि के आत्मज्ञानार्थ स्तवन का इच्छानुरुप उपायभूत सामान्य द्वारा समर्थन किया गया है।
विधोरमृतमासाद्य सन्तापं त्यजतोऽर्कतः।
पूरणाय, प्रभातं च सन्ध्यानन्दीक्षितश्रियः॥ विधोः चन्द्रनायक वाम स्वर से अमूर्त - अमृत नामक प्राणायाम वायु को ग्रहण कर अर्कतः सूर्यनामक दक्षिण स्वर से संताप - रेचन वायु को छोडने वाले तथा दीक्षित श्रियः साधुओं में शोभा सम्पन्न जयकुमार का प्रातः काल सन्ध्यानं समीचीन ध्यान की पूर्ति के लिए हुआ था। अर्थात् समस्त कार्यो की सिद्धि के लिए हुआ था।
अर्थान्तर से अर्थ -रात्रि में विधु - चन्द्रमा से अमृत लेकर दिन में सूर्य से संताप को छोड़ने वाले तथा नन्दी - आनन्द युक्त जनों के द्वारा जिनकी शोभा ईक्षित - अवलोकित है, ऐसे जयकुमार के प्रभात और सन्ध्या दिन रात को पूर्ण करने के लिए होते थे। अर्थात् जब जयकुमार मुनि ध्यानारुढ होते थे तब रात्रि में चन्द्रमा उनके शरीर को शीतलता और दिन में सूर्य संताप पहुँचाता था। प्रात:काल और सन्ध्या काल क्रमशः निकलते जाते थे।
कवि ने इसमें सामान्य से विशेष का समर्थन किया है। विभावना अलडकार :
विभावना विना हेतुं कार्योत्पत्तिर्यदुच्यते।
उक्तानुक्तनिमितत्वाद द्विधा सा परिकीर्तिता।। जहाँ हेतु के बिना कार्योत्पत्ति बतायी जाय वहाँ विभावना अलंकार होता है। कारणान्तर की अपेक्षा करके मुख्य कारण न कहकर कहा गया हो, कारणान्तर कहीं उक्त रहता और कहीं अनुक्त। इस प्रकार विभावना अलंकार के दो भेद भी होते हैं। जयोदय महाकाव्य में विभावना गत चमत्कार :
फुल्लत्यसडगाधिपतिं मुनीनमवेक्ष्यमाणो बकुलः कूलीनः।
विनेव हालाकुरलान् वधूनां व्रताश्रिति बागतावानदूनाम॥ 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 28/61 2. सा. दा. 10/66 3. जयोदय पूर्वार्ध 1/81 200000000000000000000000000000000000000000000230
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