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________________ अतिशयोक्ति की एक और बानगी द्रष्टव्य है - सारसकेलिरापि मिथुनेन नदीपुलिनदेशेषु च तेन। यदडगभासु दिने सति कोकलोकः प्रापाप्यशोकमोकः॥ विदाई के पश्चात् सुलोचना व जयकुमार के नदी तट पर रुकने का वर्णन है। सुलोचना और जयकुमार के युगल नदी तट के प्रदेशों में सारस पक्षियों की क्रीड़ा प्राप्त की अथवा वह प्रसिद्ध रस क्रीड़ा प्राप्त की, जिसमें उनके शरीर की कान्ति से उत्तम दिवस के रखते हुए चकवा - चकवी ने शोक रहित स्थान प्राप्त किया था। ___ उनके शरीर की दीप्ति से नदी तट पर दिन जैसा प्रकाश विद्यमान रहा, इसलिए चकवा - चकवी वियोग के भय से दुःख नहीं हुए। चित्रालंकार - आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपने काव्यों में न केवल अर्थालंकार, शब्दालंकार का प्रयोग किया है बल्कि उन्होंने चित्रालंकार भी प्रयुक्त किये हैं। तच्चित्रं यत्र वर्णानां खहगाद्याकृतिहेतुता। यहाँ रचना विशेष में विन्यस्त वर्ण खड्ग, सूरज तथा कमल आदि के आकार का निर्माण सा करते हैं, वह चित्रालंकार युक्त काव्य है। जयोदय महाकाव्य में कवि ने चक्रबन्ध चित्रालंकार का प्रयोग किया है। प्रत्येक सर्ग के अन्त में एक-एक चक्रबन्ध है। इससे सर्ग में हुयी प्रमुख घटना का संकेत मिलता है। इस काव्य में 28 सर्ग है, अतः इस प्रकार 28 चक्रबन्ध है। प्रत्येक चक्रबन्ध का वर्ण्यविषय इस प्रकार है - . . . 1. जयमहीयतेः साधुसदुपास्तिचक्रबन्धः 2. नागपतिलम्बच्क्रबन्धः 3. स्वयंबरसोमपुत्रागमचक्रबन्धः 4. स्वयंबरमति चक्रबन्धः 5. स्वयंबरारम्भचक्रबन्धः 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध 22/71 2. का. प्र. 9/85 000000000000000000000000000000000003 2 39) 333333333356082355558265373323883-3800-8338-55-5668
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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