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इस श्लोक में श्वेत आभूषणों का सम्बन्ध सुलोचना से कराकर शोभा को और बढ़ा दिया है कि जो निर्दोष से सम्बद्ध नीति का नीति की तरह कहकर पारम्परिक उपमान उपमेय भाव सम्बन्ध रुप निदर्शना बतायी गई है। अर्थान्तरन्यास -
सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते।
यत्सु सोऽर्थान्तरन्यासः साधम्येणेतरेण वा॥ अर्थान्तरन्यास वह अलंकार है जहाँ साधर्म्य या वैधर्म्य के विचार से सामान्य या विशेष वस्तु का उससे भिन्न (विशेष या सामान्य) के द्वारा समथ4न किया जाता है।
जयोदय महाकाव्य में अन्तरन्यासगत चमत्कार -
श्रीपादपदमद्वितयं जिनानां तस्थौ स्वकीये हृदि सन्दधाना। देवेषु यच्छददधतां नभस्या भवन्ति सद्यः फलिताः समस्याः॥
वह सुलोचना अपने चित्त में भगवान् जिन के चरणयुगलों को भलीभाँति धारण कर स्थित थी। कारण देवों पर श्रद्धा रखने वालों की आसमानी समस्यायें अर्थात् कठिन से कठिन बातें भी शीघ्र सफल हो जाती है।
इस श्लोक में सुलोचना के जिनचरण कमल युगल के ध्यान का समर्थन इस सामान्य नीति से किया गया है कि जिनेन्द्र भक्तों की समस्याएं जिन चरण युगल के ध्यान से समाप्त हो जाती है।
अर्थशास्त्रमवलोकयन्नृराद कोशलं समनुभावयेत्तराम्। श्रीप्रजासु पदवीं व्रजेत्परां व्यर्थता हि मरणाद्भयडकरा॥
सज्जन पुरुष को अर्थशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए जिससे वह समाज में रहते हुए कुशलता पूर्वक जीवन यापन कर सके और प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके अन्यथा दरिद्रता मरण से भयंकर दुःखदायिनी होती है।
कवि ने इस श्लोक में मनोवैज्ञानिक एवं धार्मिक उक्तियों के बल पर कर्तव्य विशेष के औचित्य की सिद्धि में अर्थान्तरन्यास का मनोहारी प्रयोग किया है। यहाँ उत्तरार्धगत सामान्य भाव से पूर्वार्धगत विशेष भाव का समर्थन किया गया है।
आस्तदा सुललितं चलितव्यं तन्मयाऽवसरण बहु भव्यम्।
श्रीचतुष्पथक उत्कलिताय कस्यचिद् व्रजति चिन्न हिताय।। 1. सा. दा. 10/165 2. जयोदय महाकाव्य, पूर्वार्ध 1/68 3. वही 2/59
4. वही 4/7