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________________ . सूर्य देदीप्यमान होने पर भी आपके तुल्य नहीं है, क्योंकि आप प्रकृति वाले हैं और सूर्य तीक्ष्ण प्रकृतिवाला है। जयकुमार कलंक-पाप से दूरगामी है, अतः चन्द्रमा भी आपके तुल्य नहीं है, क्योंकि वह कलंक सहित है। जयकुमार गम्भीर होने के साथ-साथ प्रबुद्ध आशय सहित है जबकि समुद्र जडाशय - जल का संग्रह रुप है। इसी प्रकार मेरु पर्वत ऊँचा होकर भी आपके तुल्य नहीं है क्योंकि आप तुङ्ग उदार प्रकृति होने के साथ हृदि कोमल हृदय में कोमल हैं, परन्तु मेरू पर्वत हृदय में कोमल न होकर अन्तः कठोर है। निदर्शना अलडकार - आचार्य विश्वनाथ ने साहित्य दर्पण में निदर्शना का स्वरुप इस प्रकार दिया है - सम्भवन् वस्तुसम्बन्धोऽसम्भवन् वाऽपि कुत्रचित् । यत्र बिम्बानुबिम्क्त्वं बोधयेत्सा निदर्शना॥ जहाँ दो वाक्यार्थ का धर्म - धर्मी भाव से सम्भाव्य सम्बन्ध दिखाया गया हो वहाँ निदर्शनालडकार होता है। यह सम्भवद वस्तु सम्बन्ध एवं असम्भवद् वस्तु सम्बन्ध के भेद से दो प्रकार का होता है। जयोदयमहाकाव्य में निदर्शना गत चमत्कार - जयमुपेति सुभीरुमतिल्लकाऽखिलजनीजिनमस्तकमल्लिका। बहुषु भूपवरेषु महीपते मणिरहो चरणे प्रतिबद्ध्यते॥. अनेक श्रेष्ठ राजाओं के रहने पर भी समस्त सुन्दरियों के मस्तक की माला श्रेष्ठतम तरुणी सुलोचना जयकुमार को प्राप्त हो रही है। अहो आश्चर्य है कि गले व मस्तक पर स्थित होने वाली मणि को पैरों में बांध दिया गया है। जहाँ मणिः चरणे प्रतिबद्ध्यते यह निदर्शना श्रेष्ठतम सुलोचना के जयकुमार को प्राप्त हो जाने के अनौचित्य का स्तर स्पष्ट कर देती है। निर्दशना का अन्य चमत्कार - सुषमाप महर्घतां परे(वि भाग्येरिव नीतिरूज्जवलैः। सुतनोस्तु विभूषणैर्यका खलु लोकेरवलोकनीयका॥ कवि ने इस श्लोक में सुलचोना के सौन्दर्य की प्रशंसा की है। सुलोचना का जो सौन्दर्य लोगों के द्वारा दर्शनीय था, वह ऊँचे भाग्य के कारण नीति की तरह श्वेत आभूषणों से अत्यन्त शोभा को प्राप्त हो गया। 1. सा. दा. 10/51 2. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 9/77 3. वही 10/39 2202888888888888888888888888888888iddio s .251
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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