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________________ जयकुमार व अर्ककीर्ति के युद्ध भूमि का वर्णन करते हुए कवि किसी अन्य यौद्धा का वर्णन करते हुए कहता है कि किसी एक यौद्धा ने अपने सामने आये बलवान को मार गिराने के लिए ज्योंही बाण उठाया, त्योंही उस . दूसरे योद्धा ने बड़ी तेजी से अपने सामने वाले शत्रु को रोकरने के लिए उसके कंठ में खींचकर बाण चढ़ा दिया। दूसा अर्थ किसी ने अपने यहाँ आये बलवान् को आदरपूर्वक बैठने के लिए सिंहासन दिया तो उसने बदले में उसकी शोभा बढाने के लिए उसके गले में हार पहना दिया। इस अप्रस्तुत व्यवहार का प्रकृत पर समारोप होने से यहाँ समासोक्ति अलंकार है। बलात्क्षतोत्तुङगनितम्बबिम्बा मदोद्धतेः सिन्धुवधूद्विर्पन्द्रैः। गत्वाडकमम्भोजमुख रसित्वाऽभिचुक्षुभेऽतः कलुषीकृता सा॥ .. जिसके नितम्बों के (तटों को) मद में उद्धत हाथियों ने बलात्कार से भ्रष्ट कर दिया है और अन्त में जिसके मध्य भाग को प्राप्त कर उसके कमल रूप मुख का चुम्बन कर लिया। इससे वह नदी रुपी वधू मानो कलुषित होकर क्षोभ को प्राप्त हो गई। इस श्लोक में नदी पर नायिका का आरोप एवं स्वच्छन्दगामी नायक का आरोप गजराज पर किया गया है। इस प्रकार नायक-नायिका के व्यवहार के आरोप से समासोक्ति अलंकार मनोहारी बन गया है। उच्चैः पल्लवमधोजटीति तपस्यतोऽन्यस्मे गुणरीति। अनोकहस्य सुकृतसंगीतिरभूदतो योवनप्रतीतिः॥ जयकुमार व सुलोचना विवाह के पश्चात् हस्तिनापुर की ओर प्रयाण करते समय एक वन में ठहरे उसी वन का वर्णन इस श्लोक में है। उस उद्यान में कोई अनोकह वृक्ष उच्चैः पल्लवं उपर की ओर पत्तों को करके (पक्ष में उपर की ओर पैरों को करके) अधोजटि-नीचे की ओर जड़ों को करके (पक्ष में जटाधारी - शिर को करके) तथा दूसरों के लिए गुणरीति - उपकार करने की रीति को प्रकट कर तपस्या कर रहा था। धाम में खड़ा था। अतः उसके सुकृत संगीति - पुण्य का उदय हुआ था। इसी कारण युवितियों के समूह उस ओर प्रतीति-प्रति इति गमन हो रहा था। पक्ष में प्रतीति - विश्वास हो रहा था। यहाँ समासोक्ति से यह भाव प्रकट किया गया है कि जिस प्रकार कोई 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 13/96 2. वही उत्तरार्ध, 14/6 3000000000000000000000000000000000000000000000000000000000004204
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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