________________
यहाँ पर कवि ने प्रस्तुत मूल अर्थ पर अप्रस्तुत दो अर्थों का समारोप होने पर समासोचित के दर्शन होते हैं ।
एक अन्य उदाहरण
करं स जग्राह भुवो नियोगात् कृपालुतायां मनसोऽनुयोगात्। दासीमिवासोमयशास्तथेनां विचारयामास च संहतेनाः ॥
कृपालुता में ही मन का झुकाव होने के कारण सभी प्रकार के पापों से रहित असीम यशशाली उस महाराज जयकुमार ने मात्र अपने अधिकार के निर्वाहार्थ भूमि का कर (टैक्स) ग्रहण किया । किन्तु वह इस भूमि को दासी की तरह मानता था ।
इस पद्य में कर इस श्लिष्ट पद से समासोक्ति का यह भाव निकलता है कि जैसे कोई अत्यन्त कृपालु और निष्पाप पुरुष किसी विधान विशेष से किसी स्त्री का हाथ पकड़ने को विवश हो जाता है किन्तु बाद में उसे दासी की तरह ही मानता है, वैसे ही यह महाराज पृथ्वी के साथ व्यवहार करता था। इस अप्रस्तुत व्यवहार का समारोप उस राजा पर कवि ने किया है । सोमसूनुरूचितां धनुर्लतां सन्दधौ प्रवर इत्यतः सताम् । श्रीकरे स खलु बाणभूषितां शुद्धवंशजनितां गुणान्विताम् ॥
जयकुमार निश्चय ही सज्जन पुरुषों में श्रेष्ट माना जाता था, इसलिए उनसे चापयष्टि - सी अंगयष्टिधारणी किसी युवती के समान धनुर्लता को ग्रहण किया, अर्थात् धनुष का सन्धान किया। वह धनुर्लता शुद्ध वंश (बास) में उत्पन्न थी, गुण (प्रत्यंचा) से युक्त तथा समुचित थी और बाणों से युक्त थी।
-
युवती भी उत्तम कुल में उत्पन्न रुप सौन्दर्यादि गुणों वाली तथा समुचित (अवस्था वाली) होकर वाण यानि विवाह दीक्षा से युक्त हुआ करती है। इस प्रकार से श्लेष से धनुर्लता पर युवती के व्यवहार का समारोप करने से यहाँ समासोक्ति अलंकार बनता है ।
समासोक्ति की एक और बानगी देख सकते हैं
संस्थापनार्थं प्रवरस्य यावत् पृषत्पतिप्रासनमुद्दधार । प्रत्यर्थिनोऽलडकरणाय कण्ठे समर्पयामास शरंस चारम् ॥
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 1/21
2. वही, 7/83
3. वही, 8 /54
225