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________________ सुलोचना के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि सुन्दर दन्तपक्ति वाली सुलोचना के अभिनव केशपाश से विभूषित मुख ने मूंगे और पल्लव में जो अधरता - ओष्ठता या गुणों की अपकर्षता मानी, वह ठीक ही है, क्योंकि मुख बालक नहीं, प्रौढ है और प्रवाल अभी शिशु है। यहाँ श्लेष के कारण व और ब अभेद है, अतः नवालकेन के स्थान में नबालकेन और प्रवालेक के स्थान पर प्रबाले मानकर यह भी अर्थ किया गया है तथा अनुकूल कर्मपाक एवं प्रभाव से युक्त तथा सुधा अमृत भी जिसे दुःखप्रद है - ऐसे मेरे लिए मधुर वं सुधा चूने को अस्वीकार करने वाले (सुलोचना के) मुख ने अमृत-गर्भ किरमओं (चूने के चूर्ण) से युक्त चन्द्रमा के विषय में भी उसी अधरता का उल्लेख किया है। अर्थात् अधरनिष्ठ माना। अनडगजन्मानमहो सदङगशक्त्या प्यजेयं समुदीक्ष्य चडगः। गतो विवेक्तुं निजमित्युपायादुपासनायां गृहदेविकायाः॥ अर्धरात्रि में कामदेव की सहायता का हृद्य वर्णन किया है। समर्थ - नवयौवन से परिपूर्ण होने पर भी पुरुष, केवल सुन्दर शरीर की शक्ति सामर्थ्य (पक्ष में शक्ति नामक शस्त्र से) कामदेव को अजेय विचार कर किसी उपाय से अपने आरो उससे पृथक करने के लिए गृहदेवी अपनी स्त्री (पक्ष में कुलदेवी) की उपासना में निरत तत्पर हो गया। कामोद्वेक से निवृत्त होने के लिए स्त्री की शरण में गया। कवि ने श्लेषालंकार के द्वारा दो अर्थों का प्रतिपादन किया है। काम को अजेय समझ कर सुन्दर पुरुष गृहदेवी की शरण में गया। यहाँ गृहरेविकायाः में श्ले ष है। सद्धारगङ्गाधरमुग्ररुपं तवेममुच्चैस्तनशेलभूपम। दिगम्बर गौरि! विधेहि चन्द्रचूडं करिष्यामि तमामतन्द्रः॥ हे गौरवर्णे! जो समीचीन हार रुपी गड्गा को धारण कर रहा है तथा उग्र रुप है उन्नत है (पक्ष में शिवरुप है) ऐसे उच्चस्तन शैलभूप-उन्नत स्तन रुप गिरिराज को दिगम्बर वस्त्ररहित करो जिससे में आलस्य रहित हो उसे चन्द्र चूड़कर सकूँ - नख क्षतों से विभूषित कर सकूँ। हे गोरि! तुम्हारा स्तन क्या है मानों शंकर है क्योंकि जिस प्रकार शंकर सद्धारगडगाधन समीचीन धारा वाली गङगा को धारण करते है उसी प्रकार 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तर्रार्ध, 16/4 2. वही, 16/14
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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