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लसति काशि उदारतरडिगणी वसतिरप्सरसामुत रडिगणी। भवति तत्र निवासकृदेषकः स शकुलार्भक ईश विशेषकः॥
अकम्पन राजा का दूत भरत चक्रवर्ती के पास जाकर कहता है कि हे नाथ! विशाल भगीरथी नदी से सम्पन्न यह काशी नगरी शोभित हो रही है। (कः जल या सुख, उसकी आशी - आशावाली यह नगरी है) साथ ही यह परमसन्दरी स्त्रियों और अप्सराओं की मनोरंजक बस्ती है। वही रहने वाला यह एक शुकलार्भक यानी मछली का बच्चा है। दूसरे पक्ष में कल्याण मय कुल का बालक है, भगवन् और आपका नाम जपने वाला है।
अन्य उदाहरण दृष्टव्य है -
पादेकदेशच्छविभाक् प्रसत्तिभृतः स्वतः पल्लवतां व्यनिक्त। समस्ति यः स्वयस्य तु वाच्यतातत्परःप्रवालोऽपि स चाभिजातः॥
इस पद्य में सुलोचना के चरण की सुन्दरता का अतिशय वर्णन किया गया है।
जो कोपल प्रसन्नचित्त सुलोचना के चरणों की आशिक छवि को धारण करता है वह पल्लवता (अपने नाम की सार्थकता) को प्रकट करता है (क्योकि वह सुलोचना के पद चरण लव-एक अंश है) किन्तु सद्योजात प्रवाल (मूंगा) छोटा (प्रवाल) होकर भी (सुलोचना के चरणों की तुलना में) अपनी निन्दा कर रहा है, अतः वह कुलीन है।
पल्लव का अर्थ कोपल हैं और प्रवाल का अर्थ मूंगा - ये दोनों ही चरणों के उपमान है। संसार में यह प्रसिद्ध है कि सुलोचना के चरण अत्यधिक लाल हैं और कोमल भी। पल्लव में आंशिक लालिमा और कोमलता है। इस कारण वह सुलोचना के चरणों के समक्ष उनका अंश मात्र है। अतएव उसका पल्लव नाम सार्थक है। तुरन्त उत्पन्न हुआ मूंगा लाल तो होता है पर कोमल नहीं होता। इस दृष्टि से उसके चरणों की तुलना में बच्चा है। पर वह चरणों के समक्ष आत्मनिन्दा करता है सो ठीक है क्योंकि कुलीन है।
कवि ने श्लेष के माध्यम से सुलोचना के चरणों को विशेष बताया है। संभग श्लेष का सुन्दर उदाहरण देखिए -
नवालकेनाधरता प्रबाले मुखेन याऽमानि सुदन्तपालेः। सुपा (धा) किने मे मधुलेन सालेख्यतः सुधालेन विघौसुधा ले। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 9/67. 2. वही, 11/13 3. वही, 11/79
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