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इस पद्य का श्लेष के द्वारा दूसरा अर्थ यह है - कलिंगराज के इन्हीं विशेषणों में जहाँ क है, वहाँ उसके शत्रु प को प्राप्त करते हैं अर्थात् पोषापेक्षी उदरापोषण की अपेक्षा वाले है। परजितवसुधा जिनकी भूमिशत्रुओं ने जीत ली है। भूरिधा पयाधारः भयभीत हो इधर-उधर भटकने वाले शैलोचित परिचय वाले अर्थात पर्वतवासी हैं।
कवि ने श्लेष के द्वारा कलिंगराज का मनोहारी चित्र खींचा है। एक और वक्ष्यमाण श्लोक का आननन्द लीजिए - सोमजोज्जवलगुणोदयान्वयाः सम्बभःसपदि कौमुदाश्रयाः।
येऽर्कतैजस वशंगताः परे भूतले कमलता प्रपेदिरे॥
प्रस्तुत पद्य में कहा गया है कि सोम या चन्द्रमा के गुणों से प्रेम रखने वाले रात्रि विकासी सुमुद होते हैं जबकि कमल अपने विकास के लिए सूर्य के अधीन होते हैं। इसी प्रकार जयकुमार भी सोमनायक राजा से उत्पन्न और सहिष्णुतादि उज्जवल गुणों से युक्त थे। अतः उनके अनुयायी लोग शीघ्र ही कौमुदाश्रय हो गये। अर्थात् भूमण्डल पर हर्ष के पात्र बने। किन्तु जो अर्ककीर्ति के प्रताप के अधीन यानी उसके पक्ष में थे, वे कमलता को प्राप्त हुए। यानी उनके क आत्मा में मलिनता आ गयी। तात्पर्य यह है कि जयकुमार के पक्षवाले तो प्रसन्न हो उठे, पर अर्ककीर्ति के पक्ष वाले निराश हो गये।
कवि ने जयकुमार को चन्द्रमा के समान बताया है। इस श्लोक में श्लेष की छटा निराली है।
समन्तभद्रो गुणिसंस्तवाय किलाकलड़को यशंसीति वा यः।
त्वमिन्द्रनन्दी भुवि सहितार्थः प्रसत्तये संभवसीति नाथ।।
हे नाथ! आप गुणीजनों का परिचय करने के लिए समन्त भद्र यानी सब तरह से योग्य है। अथवा यश में कलंकरहित, अकलंक हैं। पवित्रिताथ4 आपसब लोगों की प्रसन्नता के लिए निश्चय ही इन्द्र के समान प्रसन्न होने वाले
है।
इसमें कवि ने श्लिकष्ट शब्दों के प्रयोग से प्राचीन आचार्यों के नामों का उल्लेख बड़ी चतुरता से किया है।
श्लेषं का एक अन्य निदर्शन दर्शनीय है - .
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 7/86 2. वही, उत्तरार्ध, 9/90
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