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जयकुमार ने शीघ्र ही दीपक के छल से एक प्रयोजनता को प्राप्त रागद्वेष को छोड़ दिया था, क्योंकि रागद्वेष और दीपक दोनों ही अपनी अपनी संभ्रमण रूप क्रिया को देख रहे थे तथा दोनों ही अपने वर्ण रूप लक्षण को धारण करने वाले थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार दीपक, प्रकाश
और कज्जल रूप होते हैं, वायु वेग से हलन-चलन रूप होते हैं, उसी प्रकार रागद्वेष भी शुभ, अशुभ रूप होते है और संसार परिभ्रमण के कारण कहलाते
श्लेष अलङ्कार आचार्य विश्वनाथ ने श्लेष का लक्षण इस प्रकार किया है -
शब्दैः स्वभावादेकार्थे श्लेषोऽनेकार्थवाचनम। । जहाँ एक ही वाक्य में अनेक अर्थ का भाव हो वहाँ श्लेष अलंकार होता है। शब्द श्लेष और अर्थ श्लेष के द्वारा ही अर्थ का बोध होता है। जयोदयमहाकाव्य में श्लेष अलंकारगत चमत्करा - .
जगति भास्कर एष नरर्षभो भवति भव्यपयोरूहवल्लभः। लसति कौमुदमप्यनुभावयन्नमृतगुत्वयुगित्यपि च स्वयम्॥
पुरुषों में श्रेष्ठ ये मुनिनायक इस संसार में सज्जन रूप कमलों के प्रति पात्र और प्राणिमात्र को शिक्षा, ज्ञान देने वाले हैं। साथ ही भूमण्डल पर हर्ष विस्तारित करते हुए ये अनायास ही अमृतवत् जीवन दायक और मधुर अहिंसा धर्मोपदेशक भी होकर शोभित हो रहे हैं।
कवि ने श्लेष के चमत्कार से मुनि को एक साथ सूर्य और चन्द्रमा बना दिया है। ये दोनों कभी एक नहीं होते। यह मुनिनायक की विशेषता है कि वे दोनों ही थे।
__इस पद्य में भास्कर का अर्थ सूर्य भी है और उसका विश्लेषण भव्यपयोरूहवल्लभः का अर्थ सुन्दर कमलों का विकास करने के कारण प्रीतिपात्र है। इसी प्रकार अमृतगुत्वयुग का अर्थ है अमृतमयी किरमों से युक्त चन्द्रमा जो कौमुदम् अर्थात् कुमुदों को विकसित करते हुए उनका हर्ष बढ़ाता है।
इस प्रकार से कवि ने मुनि नायक को चन्द्रमा व सूर्य दोनों ही बना दिया है। ये दोनों कभी एक नहीं होते, यही विलक्षणता है जिसके कारण यहाँ रमणीयता के दर्शन होते हैं। 1. सा. दा. 10/57 2.जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध 1/96
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