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सुलोचना के सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए जयकुमार कहते हैं कि हे कुकेशि! इस समय तुम्हारे मुख ने कमलों को जीत लिया है, इसलिए वह खेद से भ्रमरावलि के बहाने अपने मस्तक पर मानों छुरी चला रहा है।
प्रस्तुत श्लोक में सुलोचना के सिर पर विद्यमान बूंघराले बालों का निषेध करके वहाँ पर तलवार का प्रयोग किया है। इसलिए यहाँ अपहनुति अलंकार है।
सच्चमूक्रमसमुच्चलद्रजोव्याजतो व्रजति सा स्म भूभुंजः। नीरूजोऽस्य विरहासहा सती पृष्ठतो वसूमती व सम्प्रति॥
जयकुमार की सेना के पदाद्यात से जो धूलि उड़ रही थी उससे ऐसा जान पड़ता था मानो निरोग राजा के विरह को सहन करने में असमर्थ होती हुई पृथ्वी ही धूलि के बहाने पीछे चल रही हो।
सेना के पदाघात से उड़ती हुई धूल के सम्बन्ध में आचार्य ज्ञानसागर जी ने बड़ी ही अनूठी कल्पना की है।
अपहनुति का मंजुल निदर्शन देखिए -
समाप शस्त्रेण सता शतक्रतोरयं च मुग्धे महतीं हतिं पुरा। व्रणानि नानोपहतानि जन्तुभिर्विभान्ति भो गह्वरनामतोऽधुना॥
जयकुमार सुलोचना से कहते है कि हे सुन्दरि! इस पर्वत ने पूर्वकाल में इन्द्र के शक्तिशाली शस्त्र से बहुत भारी क्षति प्राप्त की थी। उस समय जो घाव हो गये थे वे ही इस समय नाना जन्तुओं से युक्त गुफाओं के रुप में विद्यमान हैं।
___ये गुफायें नहीं घाव है और पुराने होने के कारण उनमें कीड़े पड़ गये हैं। इस श्लोक में सच्ची बात को झूठी और झूठी को सच्ची बतलाया है। प्रकृत का निषेध कर अप्रकृत की सिद्धि होने से अपहनुति अलंकार है।
अपहनुति का एक और चमत्कार अवलोकनीय है - व्यमुञ्चदेकार्थतयैकतां गतौ स रागरोषाविह दीपदम्भतः। निजक्रियासम्भ्रमिदर्शिनो पुनर्जवाज्जयःस्वस्वक्रवर्णलक्षणो॥
कवि ने जयकुमार के द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की पूजा अर्चना को अपहनुति के द्वारा अच्छी प्रकार से संयोजन किया है।
1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध 21/14 2. वही, उत्तरार्ध, 24/40 3. वही, 24/78
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