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________________ कवि ने बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। यहाँ चमत्कार यह है कि नेत्रों का आकार मछली के समान माना गया है और जिस प्रकार मछली जल में रहती है उसी प्रकार वे ही नेत्र सुन्दर होते हैं जो सरस होते हैं तथा जिनमें तरलता होती है। __ अपह्नति अलडकार : . प्रकृतं यन्निषिध्यान्यत्साध्यते सा त्वपह्नुतिः' जहाँ प्रकृत अर्थात् (उपमेय) का निषेध करके अन्य अर्थात् उपमान की सिद्धि की जाती है वह अपहनुति अलंकार है। जयोदय महाकाव्य में अपह्नति गत चमत्कार - नाभिस्तु मध्यदेशेऽस्याः सरसा रसकूपिका। लोभलाजिच्छलेनैतत्पर्यन्ते शाड्वलावलिः।। आचार्य ज्ञान सागर जी ने इस श्लोक में अपहनुति अलंकार के माध्यम से सुलोचना की नाभि का वर्णन बड़ा ही सरस किया है। इस सुलोचना के मध्यदेश (उदर) में जो नाभि है, वह तो रसभरी बावड़ी ही है। इसलिए उसके चारों और रामराजि के व्याज से हरी हरी घास, बालतृण लगे हुए हैं। ___द्विपवृन्दपदादिदगम्बरः सघनीभूय बने चरत्ययम्। निकटे विकटेऽत्र भो विभो ननु भानोरपि निर्भयस्त्वयम्।' जब राजा जयकुमार अपनी सेना के सहित अपने नगर के लिए प्रयाण करते हैं तब रास्ते में वन में पड़ाव डालते हैं। तब जयकुमार से एक व्यक्ति कह रहा है कि यह अन्धकार हाथियों के झुण्ड के बहाने से इकट्ठा होकर इस विराट वन में भानु से भी निर्भय होकर समीप ही विवरण कर रहा है। अर्थात् यह वन इतना सघन है कि दिन में भी जहाँ पर अंधेरा दिख रहा है। इस श्लोक में छल, कपट, व्याज आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं । अर्थात् इनके अर्थ से ही अपहनुति अलंकार निष्पन्न होता है। क्योकि हाथियों के व्याज से घनान्धकार एकत्रित है जो विचरण कर रहा है। अपहनुति का सुन्दर प्रयोग देखिये - पडकेजातं जितं मुखेन तव सुकेशि! साम्प्रतमसुखेन। मूर्ध्नि मिलिन्दावलिच्छलेन कृपाणपुत्रीं क्षिपदिव तेन।। 1. का. प्र. 10/146 2. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 3/47 3. वही, 13/48 4. वही, उत्तर्रार्ध 14/51
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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