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________________ एक और पद्य देखिए विलूनमन्यस्य शिरः सजोषं प्रोत्पत्तय खात्संपतदिष्टपौषम् । वक्रोडुपे किम्पुरुषाङ्गनाभिः क्लृप्तावलोक्याथ च राहुणा भीः ॥ जोश के साथ छेदा गया किसी योद्धा का सिर आकाश में उछल कर वापस पृथ्वी पर गिरने जा रहा था । उसे उस तरह आता देख वहाँ स्थित किन्नरियाँ भयभीत हो उठी कि कहीं हमारे मुखचन्द्र को राहु ग्रसने के लिए तो नहीं आ रहा है। किन्नरियों को सिर में राहु का भ्रम हो गया । सुन्दर कल्पना है। एक अन्य दृष्टान्त पर दृष्टिपात कीजिये शातकुम्भकृतकुम्भमनल्पदुग्धक मुरोरुहकल्पम् । जानती तमपि वाञ्चलकेनाच्छादयत् स्वमुपपद्य निरेनाः ॥ निष्पाप किसी स्त्री ने स्वर्ण - निर्मित और दूध से भरे घड़े को स्वयं ही अपने स्तन के समान समझ कर उसे आँचल से ढँक लिया । भ्रान्तिमान् का चमत्कार अन्यत्र द्रष्टव्य है पुलिने चलनेन केवलं वलितग्रीवमुपस्थितो बकः । मनसि वज्रतां मनस्विनामतन्नोच्छवेतसरोजसम्भ्रमम् ॥ सुलोचना के साथ जयकुमार के विदा हो जाने पर मार्ग में गंगा नदी पड़ी। उसी के तट पर बगुलों का ऐसा वर्णन किया गया है कि एक बगुला एक पैर से खड़ा होकर अपनी ग्रीवा को टेढ़ा कर दिया है, यह बगुला विवेकीजनों के मन में श्वेत कमल का भ्रम उत्पन्न कर रहा है । यहाँ बगुले में कमल की भ्रान्ति होना ही भ्रान्तिमान् का आभास कराता है । भ्रान्तिमान की एक और बानगी देखिए आत्तमात्तमप्यञ्जलौ जलमधीरनेत्रा सिञ्चितुं बलम् (रम ) निजनेत्रप्रतिबिम्बसं श्रयाज्जहावहो सविसारशडकया ॥ कोई यंचलाक्षी पति को नहलाने के लिए अंजलि में बार-बार पानी लेती थी परन्तु उसमें अपने ही नेत्रों का प्रतिबिम्ब पड़ने से उसे मछलियों की शडका हो जाती थी। इसलिए वह पानी को यूँ ही छोड़ देती थी । नेत्रों में मछलियों के भ्रम से यहां भ्रान्तिमान् अलंकार है । इसके द्वारा 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 8/34 2. वही, 10/104 3. वही, 13/63 4. वही उत्तरार्ध 14/59 216
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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