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शशिनस्वास्ये रदेषु भानां कचनिवयेऽपि च तमसो भानाम।
समुदितभावं हता शर्वरीयं समस्ति मदनैकम जरी॥ - मुख में चन्द्रमा की, दाँतों में नक्षत्रों की और कैशपाश में अन्धकार की इस तरह इन तीनों की सम्मिलित शोभा को पाकर यह सुलोचना साक्षात् रात्रि या फिर कामदेव की पुष्प-कलिका है।
___ इस श्लोक में सन्देह सुलोचना के मुख एं दातों में चन्द्रमा व नक्षत्रों का तथा केशों में कालिमा का व्यंजक है।
एक और सन्देह की बानगी -
मनोभुवा पाण्डुनि कपोलके नतभुवः प्रतिबिम्बतालके। स्फुरदगुरूदरो (लो) दारशडकया मृष्टुमिहारब्धं व्यस्यया।
नीचे की ओर देखने वाली किसी स्त्री के गाल काम व्यथा से पाण्डुवर्ण स्वच्छ हो गये और उनमें उसी के केशों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। सामने खड़ी उसकी सहेली ने समझा कि यह इसके कपोलों पर अगुरुपत्र से निर्मित काली काली पत्र रचना है। अतः उसने उसे धोना शुरु कर दिया।
कवि ने सन्देहालंकार के माध्यम से बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। भ्रान्तिमान् अलंकार -
साम्यादतास्मिस्तद्बुद्धि न्तिमान् प्रतिभोत्थित! • जहाँ प्रतिभोत्थापित अन्य वस्तु में सादृश्य वश अन्य वस्तु की भ्रान्ति हो वहाँ भ्रान्तिमान् अलंकार होता है।
जयोदयमहाकाव्य गत भ्रान्तिमान अलंकार - 'सेवेकेऽपि समभूद्गुणवर्गः पाटवाभरणविभ्रमसर्गः।
तं स्मयेन जनता मनुतेऽरं नायकं कमपि सुन्दरवेरम्।।
स्वयंबर में आये राजाओं के सेवकों को भी देखने वाले लोग उन्हें सेवक न मानकर नायक ही समझते थे, क्योंकि वे सुन्दर शरीर वाले, उन सेवकों में भी चतुरता, अच्छे वस्त्राभूषण एवं विभ्रमयुक्तता आदि समुचित गुण थे। अतः देखने वालों को सेवक भी उक्त गुणों के कारण राजा ही लगते थे।
इसमें लोगों को सेवकों में राजाओं का भ्रम हो गया। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूवार्ध, 11/93 2. वही, उत्तरार्ध, 14/60 3. सा. दा. 10/36 4. जयोदय पुर्वार्ध, 5/30
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