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________________ जयकुमार ने जाप के बाद दोनों हाथों को जोड़कर मन्द स्वर से कुछ पाठ पढ़ा। इसी का वर्णन कवि ने उत्प्रेक्षा के द्वारा करके उसको मनोहारी कर दिया है। सन्देहालडकार - ससन्देहस्तु भेदोक्तो तदनुक्तो च संशयः। सन्देह अलंकार वह है जहाँ सादृश्य के कारण उपमेय का उपमान (समेत) के साथ संशयात्मक ज्ञान होता है, और वह (उपमेय तथा उपमान) के भेद की युक्ति अथवा अनुक्ति से दो प्रकार का होता है। जयोदय महाकाव्य में सन्देह अलंकार - किमिन्दिराऽसौ न तु तुसाऽकुलीना कला विधोःसा नकलंकहीना। रतिःसतीयं न तु सा त्वदृश्या प्रतर्कितं राजकुलैः स्विदस्याम्॥ सुलोचना को देखकर राजपुत्र आपस में बातचीत करते हैं कि क्या यह लक्ष्मी है ? नहीं, लक्षअमी तो अकुलीन होती है अर्थात् वह पृथ्वी में लीन नहीं होती। अतः कुलहीना है, जबकि वह उच्चकुल में पैदा हुई है। यह चन्द्रमा की कला भी नहीं है, क्योंकि वह कलंक से रहित नहीं है, जबकि यह कलंक रहित है। यह रति भी नहीं है, क्योंकि रति तो दृश्य नहीं होती और यह दृश्य है। इस श्लोक में निश्चय गर्भ सन्देह अलंकार है। एक अन्य पद्य में उक्त चमत्कार अवलोकनीय है - अलिकोचितसीम्नि कुन्तला विबभूवः सुतनोरनाकुलाः। .. सुविशेषकदीपसम्भवा विलसन्तयोऽञ्जनराजयो न वा॥ नतागी सुलोचना के ललाट प्रदेश में संवारे गये केशों ने लोगों को संशय में डाल दिया कि यह तिलक रुपी दीपक से उत्पन्न कहीं कज्जल का समूह तो नहीं है ? ___इसमें सुलोचना के केशों में कज्जल होने का सन्देह है, अतः सन्देह अलडकार है। एक अन्य उदाहरण में भी इसका चमत्कार दर्शनीय है - 1. का. प्र. 10/138 2. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 5/88 3. वही 10/33 86000000000000000000000006600000000000000000000000000000% 2 1060888 280000000000000000000 214 3 685005000000000000000000000000000066 086000000000000
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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