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________________ लुप्तोरूरत्ननिचये वियतीव ताते चन्द्रे तु निष्करदशामधुना प्रयाते। धूमेऽपकर्मनयने द्रूतमेव जाते मन्दं चरत्यभिगमाय किलेति वाते॥ प्रातः बेला में वायु मन्द - मन्द चल रही है, क्यों इसके लिए कवि ने उत्प्रेक्षा की है कि सबके लिए आश्रय देने से पिता के तुल्य जो आकाश था, उसका विशाल रत्नों का संग्र (नक्षत्र समूह) लुप्त हो गया लूट लिया गया। पुत्र तुल्य जो चन्द्रमा था वह किरण रहित (पक्ष में हस्त रहित) अवस्था को प्राप्त हो गया अर्थात् चन्द्रमा आकाश के लुप्त रत्नों को खोजने में असमर्थ हो गया और रात्रि में विचरने वाले जो उलूक थे उनके नेत्र देखने में असमर्थ हो गये, अतः किसी सहायक को न पाकर वायु स्वयं ही उन लुप्त रत्नों के समूह को खोजने के लिए ही मानों धीरे - धीरे चल रही थी। चन्द्रोऽस्पृशत्कमलिनीमहसत्कमोदि - न्येतद्वयेऽरूणदूगर्यमराड् विनोदिन्। स्त्रागभ्युदेति किल तेन कुमुद्वतीयं मौनिन्यभूच्छशभृदेति च शोचनीयम्।। हे विनोद रसिक! चन्द्रमा ने कमलिनी का स्पर्श किया, यह देख कुमुदिनी ने हँस दिया। इन दोनों कार्यो पर क्रोध से लाल-लाल नेत्र करता हुआ सूर्य रूपी राजा शीघ्र ही उदय को प्राप्त हो रहा है। इससे कुमुदिनी तो मौन लेकर बैठ गई, निमीलित हो गई और चन्द्रमा शोचनीय अवस्था को प्राप्त हो गया। कवि ने इस श्लोक में उत्प्रेक्षा के द्वारा कुमुदिनी की निमीलन, सूर्य का उदय, चन्द्रमा की निष्प्रभता का वर्णन एक साथ ही एक श्लोक में बड़ी कुशलता के साथ किया है। उत्प्रेक्षा की एक और बानगी - प्रपञ्चशाखो ग्रहणौ जयस्य तो गुणेन बद्धो तु विभोर्बभूवतुः। भयाकुलेवेत्यपि भारती तदा तदात्मिका सा निरगात् स्वतद्रमतः।। प्रपंचशाख पाँच - पाँच अंगुलियों से सहित (पक्ष में प्रपंच प्रतारणा विस्तृत करने वाले) जयकुमार के हाथ भगवान् के क्षमा - सत्य संयमादि गुणों से (पक्ष में रस्सी से) बद्ध हो गये, बंध गये, यह देख प्रपंच प्रतारणा (पक्ष में विस्तार) करने वाली उनकी वाणी भी भयभीत होकर मुखरूप धर से धीरे - धीरे निकल रही थी। 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 18/4 2. वही, उत्तरार्धा, 18/38 3. वही, उत्तरार्धा, 24/85 Mos8602338 29088888880608602 13) 868888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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