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________________ इस श्लोक में अमावस्या के चन्द्र बिम्बों का उदय विधाता ने इसलिए नहीं दिया कि इन्हें राजाओं के मुखों का निर्माण करने के लिए चन्द्रविम्बों की आवश्यकता थी। यह उत्प्रेक्षा कवि के अनन्य कौशल की द्योतक है। धराभितप्तेति विदां निधाय समेति तस्या अभिषेचनाय। समात्ससप्ताश्वकशातकुम्भकुम्भान्तिमाम्भोधिमियं दिनश्रीः॥ पृथ्वी संतप्त है ऐसी बुद्धि धारण कर उसका अभिषेक करने के लिए दिन श्री नामक कोई स्त्री सूर्य रुपी स्वर्ण कलश लेकर पश्चिम समुद्र को गई है। सन्ध्या समय लालवर्ण वाला सूर्य पश्चिम समुद्र के समीप पहुँचा है। कवि ने उत्प्रेक्षा की है कि जगन्माता पृथ्वी को संतप्त देख उसे नहलाने के लिए मानों दिन श्री नामक कोई स्त्री सूर्यरुपी स्वर्णकलश को लेकर पानी लेने के लिए पश्चिम समुद्र के पास गयी है। कवि ने सूर्य को दिन श्री का कुम्भ बनाया है। इस श्लोक में कवि की मौलिक उत्प्रेक्षा का चमत्कार देखिए - व्योम्नि स्थितिं भरुचितां समतीत्य दीने राज्ञोऽपवर्तनदशा प्रतिपद्य हीने . सद्योऽथवाभ्युदयमेतरि भावनाना - माघेऽर्थवत्यपि पदे विकृतोक्तिमानात्॥ जब आकाश राजा - चन्द्रमा (पक्ष में नृपति) की अपवर्तन दशा, अस्तोन्मुख अवस्था (पक्ष में कुत्सित शासन प्रवृत्ति) को प्राप्त कर भरुचितांनक्षत्रों से देदीप्यमानता (पक्ष में भरू-चिन्तां-सुवर्ण सम्पननता) को छोड़कर दीन हो गया - प्रभाहीन हो गया( पक्ष में निर्धन हो गया) तथा सूर्य शीघ्र ही अभ्युदय उदय (पक्ष में सम्पन्नता) को प्राप्त हो गया, तब पक्षी अपनी कलकल ध्वनि से आगलोक्त बारह भावनाओं में से प्रथम भावना - अनित्य भावना को सार्थक कर रहे थे। भाव यह है कि चन्द्रमा रुपी एक राजा का अस्त होना और सूर्य रुपी अन्य राजा का उदित होना इससे संसार की अनित्यता को पक्षी अपनी कलकल ध्वनि से प्रकट कर रहे हैं। पक्षीयों के द्वारा कवि ने उत्प्रेक्षा की है। उत्प्रेयागत सौन्दर्य का एक अन्य निदर्शन द्रष्टव्य है - 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 15/16 2. वही, 18/8
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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