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________________ प्रस्तावना जैन महर्षियों ने हर काल में ज्ञान विज्ञान की सभी शाखाओं और विद्याओं में महनीय साहित्य की सर्जना कर भारतीय संस्कृत को समृद्ध किया है । यद्यपि जैन वाड्मय में सिद्धान्त, दर्शन, धर्म, तर्कशास्त्र, योग तथा अध्यात्म, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र और पुराण इतिहास पर जैन मुनियों के ग्रन्थ दृष्टिगत होते हैं। लेकिन इसके साथ कोमलकान्त पदावली से सम्बलित सरल काव्यों की रचना भी जैन साहित्यकारों द्वारा की गयी है। जैनाचार्यों का प्राचीनतम साहित्य विविध प्रकारों के प्राकृतों और अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है। लेकिन विगत शताब्दियों से जैन ग्रन्थकारों ने संस्कृत भाषा को अपनाकर युगानुरुप ग्रन्थों का प्रणयन किया। (एक समय ऐसा आया जब जैन मुनियों ने यह मान लिया था कि अब साहित्य में अकलंक जैसा तार्किक जिनसेन जैसा पुराणकार और हरिशचन्द्र जैसे महाकवि का उदय अनिश्चित है ) परन्तु जैन संस्कृत काव्य प्रकाश में महाकवि पं. भूरामल जी शास्त्री के रूप में एक देदीप्यमान नक्षत्र का उदय हुआ। सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रहस्यों को अत्यन्त सुगमता से हृदयग्राह्य बना देने वाले पूज्य मुनि श्री ज्ञान सागर जी महान सन्त हैं । - काव्यशास्त्र की कसौटी पर खरी उतरने वाली रचनाओं की जो धारा सूख गयी थी उसे इस रससिद्ध कविराज ने विशाल रससिक्त रचनाओं के माध्यम से पुनः प्लावित कर दिया। समाज में साहित्य के प्रति उदासीन वृत्ति तथा महाकवि की यश आदि से दूर निजात रमण की वृत्ति के कारण न तो इस महाकवि के महनीय व्यक्तित्व से साहित्य के अध्येता परिचित हो सके और न ही इस महाकवि के दार्शनिक ग्रन्थ प्रकाश में आ सके । परन्तु रत्नों की आभा लम्बे समय तक छिपी नहीं रह सकती है। आपके वाङ्मय में श्रद्धा और विश्वास के रास्ते भगवान महावीर की भक्ति उनका साक्षात्कार और बोध को प्राप्त करा देना उनका लक्ष्य होता था । उनकी रचनाओं में मैंने देखा कि अन्त:करण को एक अद्भुत शान्ति अथवा जीवन का समाधान मिलता है। आपके काव्यों में चिन्तन और लेखन की खूबी है । उनमें धर्म की मर्यादा और लोक की भावना का अद्भुत सामंजस्य होता है । उनकी कविताओं में भाषा की सुगमता सिद्धान्तों के प्रतिपादन में श्रद्धा व भक्ति को अर्न्तर्हृदय में स्थापित कर देना उनका वैशिष्टय है। श्री ज्ञान सागर जी का चरित्र ही चमत्कार है । उसमें जो लालित्य साहित्यिक विच्छिति, चारुत्व और रमणीयता निहित है। उसकी आचार्य क्षेमेन्द्र द्वारा कविकण्ठाभरण मैं प्रतिपादित चमत्कार तत्त्व के 17
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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