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कवि ने इस श्लोक में संसार. समुद्र एवं श्री पादपादप पर रुपक से संसार की विशालता, गहनता, भगवान् के चरणों की शान्तिप्रदायकता के दर्शन कराये हैं। उत्प्रेक्षा अलडकार :
सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्। आचार्य मम्मट के अनुसार उपमेय को उपमान के साथ एक रुपता की सम्भावना उत्प्रेक्षा अलडकार है। उत्प्रेक्षा दो प्रकार की होती है
1. वाच्योत्प्रेक्षा 2. प्रतीयमान उत्प्रेक्षा आचार्य विश्वनाथ ने इसके भेद उपभेद किये हैं -
वाच्येवादिप्रयोगे स्यादप्रयोगे परा पुनः। जातिर्गुणः क्रिया द्रव्यं यदुत्प्रेक्ष्यं द्वयोरपि॥ तदष्टधापि प्रत्येकं भावाभावाभिमानतः। गुणक्रियास्वरुपत्वान्निमित्तस्य पुनश्चताः॥
द्वात्रिशंद्विधतां यान्ति। जयोदय महाकाव्य में उत्प्रेक्षागत चमत्कार -
अहीनलम्बे भुजम दण्डे विनिर्जिताखण्डलशुण्डिशुण्डे। परायणायां भुवि भूपतेः स शुचेव शुत्कत्वमवाप शेषः।।
आचार्य भूरामल जी ने राजा जयकुमार के पराक्रम और शक्तिशालिता की अभिव्यक्ति उत्प्रेक्षा के द्वारा बड़ी ही मनोहारी की है।
राजा जयकुमार के भुजदण्ड सर्पराज शेष के समान लम्बे थे और उन्होंने इन्द्र के ऐरावत हाथी को भी जीत लिया। महाराज के ऐसे भुजदण्डों के भरोसे यह सारी पृथ्वी सुदृढ बन गयी। मानो इसी सोच में शेषनाग सफेद पड़ गया। उत्प्रेक्षा की एक और बानगी द्रष्टव्य है -
समुत्कीर्य करावस्या विधिना विधिवेदिना।
तच्छेषाशेः कृतान्येव पडकजानीति सिद्धयति।। इस श्लोक में सुलोचना के हाथों के सौन्दर्य का वर्णन है। विधि के 1. का. प्र. 10/137 2. सा.दा. 10/41-43 3. जयोदय पूर्वार्ध, 1/25 4. वही, 3/50.