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भिन्ने भवत्यमृतधामनि नाम शुम्भत् - .
स्वर्णस्य संकलितुमत्र नवीनकुम्भम्॥ कवि ने इसमें प्रात:काल का मनोहारी वर्णन किया है। पूर्व दिशा में उदित होता हुआ लाल - लाल सूर्य ऐसा प्रतीत होता है मानों आकाशरुपी दुग्धाधिकारी के द्वारा अग्नि में तपाकर स्वर्ण का नवीन घट बनाया जा रहा हो। चन्द्रमा रुपी घट के नष्ट हो जाने पर नवीन घट का बनाया जाना उचित है। चन्द्रमा रुपी चाँदी का मटका फूट गया अतः अब मजबूती की दृष्टि से सुवर्ण का घट बनाया जा रहा है।
आचार्य भूरामल जी ने रूपक के माध्यम से अपनी कल्पना को साकार रूप दिया है।
रूपक का लालित्य वक्ष्यमाण पंक्तियों में -
मत्स्यकेरपि वराशयः समाः सत्तरङगतरलास्तुरङगमाः। सामजा हि मकरानुकारिणः सैन्यसागर इहाभिसारिणः।।
जयकुमार की सेना का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है कि इस सेनारुपी समुद्र में चलने वाले जो गेंड़े थे वे मच्छों के समान थे, जो घोड़े थे वे चंचल तरंगों के समान और जो हाथी थे वे मगरों के समान थे।
जयकुमार की सेना इतनी विशाल थी जो लहराते समुद्र के समान थी। महाकवि ने रूपक अलंकार के द्वारा सेना को समुद्र जैसा चित्रित किया है। रूपक की संयोजना देखिए -
संसारसागरसुतीरवदादिवीर - श्रीपादपादपपदं समवाप धीरः। तत्राऽऽनर्मस्तु झरदुत्तरलाक्षिमत्वा -
न्मुक्ताफलानि ललितानि समाप सत्वात्॥ धीर वीर जयकुमार ने संसार रूपी सागर के उत्तम तटस्वरूप भगवान् वृषभदेव के चरणरूप वृक्ष के स्थान को प्राप्त किया। वहाँ नमस्कार करते हुए उन्होंने सात्विक भाव के कारण झरती हुई चंचल आँखों से युक्त हो मनोहर मोती प्राप्त किये।
अर्थात् भगवान् वृषभदेव के चरणों का सान्निध्य पाकर उनके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकलने लगे। वे अश्रुकण मोतियों के समान प्रतीत होते थे। 1. जयोदयमाहाकव्य, उत्तरार्ध, 18/44 2. वही, 2 1/8, 3. वही, 26/69
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