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जयकुमार की भुजा शूर वीरतारुप सरोवर में जो कि शुद्धतर वारि अर्थात् खडगरुप निर्मल जल के संचार से युक्त था, नौका रूप में अपनी सोभा निहारने के लिए स्फुरित हो उठी अर्थात् नृत्य करने लगी। वह भुजा पवित्र मार्ग पर चलने वाली निर्मल स्वास्थ्यादि गुणों से युक्त थी।
यहाँ पर भुजा, शौर्य, खग पर क्रमशः नौका, सरोवर, निर्मल जल संचार का अभेद आरोप होने के कारण रूपक है।
इसमें रूपक का सौन्दर्य देखिए - वक्रा: पताकाः करिणोऽम्बुवाहाः शरा मयूरास्तडितोऽसिका हा।
ठक्कानिनादस्तनितानुवादः सुधी रणं बर्बणमुज्जगाद॥ इसमें जयकुमार व अर्ककीर्ति के युद्ध का वर्णन है। उस समय रण को सुधीजन ने वर्षाकाल के समान कहा। कारण उसमें पताका ही बगुले थे हाथी ही बादल थे, मयूर के स्थान पर बाण थे, चमकती हुई तलवारें बिजली का काम कर रही थी। वहाँ नगाड़े की धअवनि मेघगर्जना का प्रतिनिधित्व कर रही थी।
कवि ने इसमें युद्ध पर वर्षाकाल का आरोप किया है। ध्वजों, हाथिथयों, वाणों, तलवारों और नगाड़े की आवाज क्रमशः बगुलों, बादलों, मोरों, बिजली और बादलों की गर्जना से अभेद स्थापित करने के कारण रुपक अलङकार है।
मृदुलदुग्धकला क्षरिणी स्वतः किमिति गोपतिगोरूदिता यतः। समभवत खलु वत्सकवत् सकश्चरवरोऽप्युपकल्पधरोऽनकः।।
इस पद्य में भरत चक्रवर्ती की वाणी की प्रशंसा व्यक्त की है। चक्रवर्ती की वाणी रुपी गाय मानों स्वयं ही मृदुल मीठा दूध प्रवाहित करने वाली बनकर प्रकट हुई, जिसमें वह निर्दोष दूत निश्चय ही बछड़े के समान सहायक सिद्ध हुआ।
कवि ने इस श्लोक में वाणी पर गाय का और दूत पर बछड़े का आरोप कर रूपक के माध्यम से बड़ा ही चित्त को आकर्षित करने वाला वर्णन किया है। रूपक का एक और उदाहरण देखिए -
यत्नोऽमृताश्रमपरेण च रवेन तात -
- ख्यात! प्रभातहविरासन एष जातः। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 8/62 2. वही, 9/71