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________________ रुपक अलडकार - रुपकं रूपितारोपो विषये निरपहनवे। तत्परम्परितं साडग निरडगमिति च त्रिधा॥ आचार्य मम्मट ने रूपक का स्वरुप इस प्रकार बताया है। तदुपकमभेदो य उपमानोपमेययोः । उपमान और उपमेय के अभेद वर्णन को रूपक कहते हैं। जयोदय काव्य से इसके उदाहरण द्रष्टव्य हैं - जयोदय महाकाव्य में रूपकगत चमत्कार - श्री पयोधरभराकुलितायाः संगिरा भुवनसंविदितायाः। काशिकानृपतिचित्तकलापी सम्मदेन सहसा सभवापि। शोभायुक्त पयोधर भर से व्याप्त और भुवनविख्यात उस बुद्धि देवी की यह वाणी सुनकर महाराज अकम्पन का चित्त मयूर एकाएक प्रसन्न हो गया, नाच उठा। कवि ने इस श्लोक में चित्त पर मयूर के आरोप से राजा अकम्पन का आनन्द विभोर अनायास ही व्यंजित हो उठा।। भुजगोऽस्य च करवीरो द्विषदसुपवनं निपीय पीनतया। दिशि दिशि मुञ्चति सुयशः कञ्चुकमिति हे सुकेशि रयात्।। _इस श्लोक में विद्या देवी सुलोचना को जयकुमार का परिचय कराती हुई कहती है कि हे सुन्दर केशों वाली! इसके हाथ का खडगरु (तलवार रुप) सांप वेरियों के प्राण रुपी पवन को पीकर मोटा - ताजा हो जाता है और प्रत्येक दिशा में इसकी रुपी काँचली छोड़ता है। यहाँ पर राजा के हाथ पर सर्प का आरोप करने में और शत्रु के प्राण पर पवन का आरोप तथा यश पर केंचुल का आरोप प्रभावी है। अतः यहाँ रुपक अलंकार है। रूपक का लालित्य द्रष्टव्य है - तस्य शुद्धतरवारिसञ्चरे शौर्यसुन्दरसरोवरे तरैः। ईक्षितुं श्रियमुदस्फुरदभुजा शौचवम॑नि गुणेन नीरूजा। जयकुमार के वीर की प्रशंसा कवि करता हुआ कहता है कि उस 1. सा. दा. 10/28 2. का. प्र. 10/139 3. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 5/55 4. वही 6/106 5. वही, 7/84 20/ Dssssssssss8800300305000000000083%836308888888888888888888888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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