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उपमा का लालित्य इस श्लोक में द्रष्टव्य है - किमु भवेद्विपदामपि सम्पदा भुवि शुचापि रुचापि जगत्सदाम्।
करतलाहतकन्दुकवत् पुनः पतनमुत्पनतं च समस्तु नः॥
इस संसार में जीवों को पृथ्वी पर विपत्तियों का समागम होने पर शोक और सम्पत्तियों का समागम होने पर रूचि से क्या होता है ? अर्थात् कुछ नहीं क्योकि मनुष्यों का उत्थान और पतन हस्ततल से ताडित गेंद के समान होता ही रहता है।
जिस प्रकार हाथ से आघात करने पर गेंद उठती और गिरती है उसी प्रकार संसार में भी भाग्यवश पतन व उत्थान होता रहता है। कभी भी एक सी परिस्थितियाँ नहीं रहती है। कभी दुःख है तो कभी सुख।
कवि ने गेंद की उपमा के द्वारा संसार की वास्तविक स्थिति का वर्णन किया है। पर यहाँ जगत् की यर्थात् स्थिति का गेंद के उत्थान - पतन से उपमित कर कवि ने लालित्य का आधान कर दिया है।
गुणविगुणविदं तु स्त्रागमि ख्यापयन्तु विशदिमविदंशा पेयताडकेऽत्र हंसाः।
अशुचिपदकतुष्टा आत्मघोषाः सुदुष्टाः किमिव नहि वराकाः काकुमायान्तु काकाः।। स्वच्छता में जिनका स्वभाव प्रवेश कर रहा है, जो काव्य के निर्दोष अंश को ग्रहण कर रहे हैं ऐसे हंस विवेकी मनुष्य आस्वादनीय इस काव्य के विषय में शीघ्र ही गुण और दोषों की समीक्षा करें, परन्तु जो अशुद्ध के पद ग्रहण करने में सन्तुष्ट हैं ऐसे दयनीय दुष्ट पुरूष इस काव्य के विषय में किसी प्रकार भी तर्कणा को प्राप्त न हों।
कवि ने उपमा के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि जो हंस के समान नीरक्षीर विवेकी मनुष्य है वे ही हमारे इस काव्य की समीक्षा के अधिकारी हैं। जो कौआ की तरह आत्मश्लाघी पुरुष हैं वे इस काव्य की समीक्षा के अधिकारी नहीं है।
कवि ने इस महाकाव्य में बहुत ही पाण्डित्यपूर्ण उपमायें दी है।
1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 25/10 2. वही, 28/91
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