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कवि अर्ककीर्ति की उपमा फूलों से तथा हवा के झोंके की विकर्षण से करके मनोव्यथा को बहुत प्रभावी बना दिया है।
वेणीयमेणीदॉश एवं भायाछ्रेणी सदा मेकलकन्यकायाः । हरस्य हाराकृतिमादधाना यूनां मनोमोहकरी विधानात् ॥' कवि ने सुलोचना के सौन्दर्य को उपमा के द्वारा और हो विशिष्ट बना दिया है।
यह मृगनयनी सुलोचना की ही चोटी सुशोभित हो रही है जो सर्वदा नर्मदा नदी की धारा की भाँति काली और घुंघराली है और भगवान् शंकर के हार के सर्प की आकृति धारण करती हुई अपनी निराली रचना से तरुणों के मन में मोह उत्पन्न करने वाली है ।
कवि ने सुलोचना की चोटी की उपमा नर्मदा नदी व शिव के हार से करके मनोहारी व सचित्र वर्णन किया है ।
उपमागत चमत्कार का एक अन्य निदर्शन देखिए
नन्दीश्वरं सम्प्रति देवदेव पिकाघ्गना चूतकसूतमेव । वस्वौकसारार्कमिवात्र साक्षीकृत्याशु सन्तं मुमुदे मृगाक्षी ॥
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सुलोचना जयकुमार को देखकर उस प्रकार प्रसन्न हुई जैसे नन्दीश्वर को देखकर इन्द्र, आम्रमंजरी को देख कोयल तथा सूर्य को देखकर कमलिनी प्रसन्न होती है।
कवि ने इस श्लोक में एक साथ कई उपमाओं का प्रयोग किया है। कवि ने उपमाओं की माला सी बना दी है । कवि उपमा के प्रयोग में सिद्धहस्त
है ।
जयः प्रचक्राम जिनेश्वरालयं नयप्रधानः सुदृशा समन्वितः । महाप्रभावच्छविमुन्नतावधिं यथा सुमेरु प्रभयान्वितो रविः ॥
जिस प्रकार प्रभा से सहित सूर्य बहुत भारी प्रभायुक्त छविवाले उत्तुङग सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करता है, उसी प्रकार नीतिप्रधान एवं सुलचोना से युक्त जयकुमार ने कान्तिशाली उस जिनमन्दिर की परिक्रमा की ।
कवि ने प्रभा तथा सूर्य की उपमा सुलोचना व जयकुमार से दी है, व सुमेरु पर्वत की उपमा जिन मन्दिर से दी है । कवि ने उपमा के द्वारा शाश्वत सत्य की ओर संकेत किया है।
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1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 11/70 2. वही, 10/117
3. जयोदय, उत्तरार्ध 24 /56
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