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________________ तथा मानहीनों का समूह भी. देवमण्डल से आया। यह कोई बड़ी बात नहीं थी। . सुलोचना के स्वयंबर में मानहीन तथा देवगण पहुँचे इसमें क्या विचारणीय है क्योंकि वह परम सुन्दरी तथा राजकुमारी है। इसमें काकुवक्रोक्ति अलंकार एक अन्य उदाहरण - वैद्योपक्रमसहितांस्तत्र नभोगाधिभुव इमान् सुहिता। .. तत्याज सपदि दूरा मधुराधरपिण्डखजूरा॥ बुद्धिदेवी सुलोचना को जब स्वयंबर में उपस्थित राजा का वर्णन कराती है तब सुलोचना ने बुद्धि देवी के उपयुक्त कथन पर सोचा कि ये तो विद्यासम्बद्ध उपक्रम है एवं वैद्योपक्रम यानी रोगी है। इसलिए नभोगाधिभुव आकाश में चलने वाले पक्षियों के समान है। अतएव यह भोगनीय नहीं है। यह सोचकर पिण्डखजूर से मधुर ओठों वाली सुलोचना ने उन्हें त्याद दिया। · श्लेष वक्रोक्ति का चमत्कार देखिए - - वृद्धिस्थाने गुणादेशात् सहस्त्राशुककीर्तनम्। सम्यगुत्कलितं राजन्नत्र कान्ततया त्वया। इस श्लोक में दुर्मर्षण ऐसी चुभती हुई बात अर्ककीर्ति कहकर युद्ध के लिए प्रेरित करता है - हे राजन! आपने तो अपने राजा नाम के अन्त में 'क' लगाकर और 'रा' के स्थान पर 'र' गुण. लाकर हजारों कपड़ों को धोने वाला रजकपन ही स्पष्ट कर दिया बता दिया। दूसरा अर्थ यद्यपि आप सुन्दर और सूर्य के समान तेजस्वी है परन्तु आज तो अपनी महिमा के स्थान पर आपने अपमान ही पाया है। एक और उदाहरण द्रष्टव्य है - यदस्ति भक्ताय समक्षताप्तिस्तवः स्वर्गिणि सूपकारः। व्यधार्यि अस्याभिरहो ललामाशुभक्षणायाञ्जलिरेवसारः।। जयकुमार गंगा देवी से कहते है - हे देवते ! जिस कारण मुझ जैसे भक्त के लिए साक्षात्कार की प्राप्ति रूप आपका प्रसंग प्राप्त हुआ यह एक बड़ा 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 6/10 2. वही, 7/9 3. जयोदय, उत्तरार्ध 20/80 200
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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